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अधिकार ] शास्त्राभ्यास और वर्तन [६१ तत्किञ्चनाधीष्व कुरुष्व चाशु,
न ते भवेयेन भवाब्धिपातः ॥५॥
" लोकरंजनकारक शास्त्रोंका तूं अभ्यासी होकर तूं पण्डितं नाममात्रसे क्यों कर प्रसन्न हो जाता है। तूं कोई ऐसा अभ्यास कर और फिर कोई ऐसा अनुष्ठान कर कि जिससे तुझको संसारसमुद्र में पड़ना ही न पड़े।" उपजाति...
विवेचन-उक्त हकीकतको यहां स्पष्ट किया जाता है। शास्त्राभ्याससे प्रसन्न न हो जाना चाहिये, किन्तु कुछ करना चाहिये-कुछ दान, शील, तप, भाव अथवा शुद्ध वर्तन, विवेक, अनुकम्पा-वर्तनमें मासके ऐसा कुछ न कुछ करना चाहिये । इनके संयोगमें यदि आदर, कीर्ति आवें तो भले ही आवें किन्तु उनको लेने न जावे । तूं तो आँखे बन्द कर ऊँची पदवी प्राप्त करनेको, गुणस्थान भारोहण करनेको आगे बढ़ता जा । अभ्यासका यह ही हेतु है, यही फल है और यही पराकाष्ठा है।
झान दो प्रकारका है। एकमें केवल मानसिक उन्नति होती है और दूसरे में हार्दिक उन्नति होती है। जो वादविवाद करने मात्रमें ही कुशल हो, जो भाषण करने मात्रमें ही कुशल हो, जो लेख लिखने मात्रमें ही कुशल हो, वे इनमेंसे किसी भी प्रकारका आनंद उपभोग नहीं कर सकते हैं। ऐसे झानसे न रुक कर हृदयको उन्नत बनानेकी बहुत आवश्यकता है। शास्त्रकार कहते हैं कि " जनमनरंजन धर्मका, मूल्य न एक बदाम" अमुक अपेक्षासे यह वचन सत्य है और इस अपेक्षाको ध्यानमें रख कर ही इस अधिकारका उल्लेख किया गया है।
दूसरा आत्मपरिणतिमत् ज्ञान है। उसमें अमुक कार्यसे आत्मिक गुण विकासित करनेसे कितना . लाभ तथा हानि होती