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२८४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[अष्टम श्रद्धानशुद्धाशयाः॥ केचित्त्वागमपाठिनोऽपि दधत
स्तत्पुस्तकान् येऽलसाः। अत्रामुत्रहितेषु कर्मसु कथं
ते भाविनः प्रेत्यहाः ॥७॥ "कितनेही प्राणियोंने शास्त्रका अभ्यास न किया हो फिर भी दूसरोंके थोड़ेसे उपदेशसे कठिनतासे होनेवाले शुभ अनुष्ठानोंका आदर करने लगजाते हैं और श्रद्धापूर्वक शुभ आशयवाले हो जाते हैं। उनको धन्य है ! कितने ही तो आगम के अभ्यासी होते हैं और उनकी पुस्तकें भी पासमें लिये फिरते हैं फिर भी इस भव तथा परभवके हितकारी कार्योंमें प्रमादी बनजाते हैं और परलोकका नाश करदेते हैं उनका क्या होगा ?"
शार्दूलविक्रीड़ित. विवेचन:-विद्या भौर मुक्तिप्राप्तिमें क्या सम्बन्ध है यह विचारने योग्य विषय है। विद्वानों को ही मोक्ष मिलता हो यह ही नहीं, परन्तु अभ्यासके साथ साथ सरलता तथा सद्वर्तन होना चाहिय | Smiles नामक एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार कहता है कि असाधारण विद्वत्ताके साथ तुच्छ से तुच्छ दुर्गुण कितने अंशोमें मिले हुए होते हैं, और उच्च चारित्र तथा विद्या के साथ उनका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता है । देव-गुरु-धर्मपर शुद्ध श्रद्धा, शुद्ध वर्तन और सरल सौम्य प्रकृतिसे अनेकों भद्रक जीव तैर गये हैं । ऐसी दशा होनेपर भी यह बात तो निसन्देह है कि विद्यावान्के लिये संसारसागर तैरना सुगम है । ज्ञानी के विचार-व्यवहार उत्तम हो जाना बहुत सम्भव है और अज्ञानी करोड़ों वर्षों में जो कर्म क्षय करता है वह ज्ञानी एक श्वासोश्वासमें ही कर सकता है । ऐसी सुगमता होनेपर भी यदि