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अधिकार] शास्त्राभ्यास और वर्तन [२७५ तो यह समझना चाहिये कि इस जीवको अनन्तकालपर्यंत संसारभ्रमण करना पड़ेगा। प्रमाद आठ प्रकारके हैं:१ संशय, २ विपर्यय ( उलटा बोध ), ३ राग, ४ द्वेष, ५ मतिभ्रंश, ६ मन, वचन, कायाके योगोंका दुःप्रणिधान, ७ धर्मपर अनादर, ८ अज्ञान; अथवा पांच प्रकारके भी प्रमाद हैं:-मच, विषय, कषाय, पिकवा और निद्रा । इमका विशेष स्वरूप बढे अधिकारमें बता दिया गया है । यहाँ आठ प्रकारके प्रमादोंका त्याग करना समझना चाहिये । शास्त्राभ्यास या श्रवणके पश्चात् भी यदि वे बने रहें तो समझना चाहिये कि उनका नशिहोना कठिन है । वैदिक शास्त्रोक्त विधिपूर्वक भस्म किये हुए ताम्र या पारेके सारके प्रयोगसे भी जब व्याधिका अन्त न हो तो फिर उस रोगीकी आशा छोड़ देना चाहिये । इसीप्रकार संसारदुःखरूप व्याधि भी यदि उसको हरनेवाले रसायणरूप शाखसे भी न मिट सके तो समझना चाहिये कि उस व्याधिवाला प्राणी " दुःसाध्य " या " असाध्य " के वर्ग में है । प्रत्येक भूलको सुधारनेका उपाय होता है, प्रत्येक विमार्गगामीको सुमार्ग में लानेका साधन होता है और प्रत्येक व्याधिकी औषधि होती है।
प्रमादका पारिभाषिक अर्थ न किया जावे तो सामान्य भाषा में इसे आलस-पुरुषार्थका प्रभाव कहते हैं। हरेक वक्ति चाहे वह उपाधि सहित अथवा रहित क्यो न हो उसको स्वकर्तव्यसे च्युत करनेवाला यह महादुर्गुण है। इसकी उपस्थितिमें कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता और प्रत्येक पद पद पर बाधा उपस्थित होती रहती है । साधु जीवन में प्रमत्त अवस्था अधःपतन करानेवाली है । यह साध्यकी ओर अग्रेसर करनेके साथ उसके पैरको पिछे हठाती रहती है।
इस प्रमत्त अवस्थाको दूर करनेका शास्त्राभ्यास परम