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अधिकार ] शास्त्राभ्यास और वर्तन
[ २७७ "दुर्गतिमें पड़नेवाले प्रमादी प्राणी जो स्वपूजा निमित्त जैन शास्त्रका अभ्यास करते हैं वह निष्फल है । दीपककी ज्योतिसे लुमाकर दीपकमें गिरनेवाले पतंगियोंको उनकी पाँखें.क्या लाम देनेवाली हैं ?"
वंशस्थ. विवेचन क्षेत्रोंके बिना जीवन शून्य है, परन्तु यदि उन्हीं नेत्रोंका दुरुपयोग हो तो वेही नैत्र इस जीवनका नाश करने. वाले हैं । पतंगिया भाँखसे ही फंसता है। शास्त्राभ्यास बिना दुर्गतिका नाश नहीं हो सकता है, परन्तु जब वह ही अभ्यास स्वपूजासत्कारनिमित अथवा प्रथम कुर्सी मिलने निमित्त किया गया हो तो वह निष्फल हो इतना ही नहीं अपितु हानिकारक है। थोडासा मान मिलता है उसे चाहे तुम लाभ कहो परन्तु शाखकार तो इसे हानि ही कहते हैं । शास्त्राभ्यास के परिणाममें सब कुछ मिलता है: मान मिलता है, प्रमुखकी कुर्सी मिलती है, प्रन्थकार बनते हैं; परन्तु अभ्यासीके अभ्यासके फलरूप यह अभिलाषा न होनी चाहिये। ऐसी अभिलाषा जागृत होनेपर सम. झना चाहिये कि सब कुछ नष्ट होनेवाला है । श्रीमान् हरिभद्रसूरि महाराज इस निमित्त विषयप्रतिभास ज्ञानकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस ज्ञानसे कैसी प्रवृत्ति करना इस सम्बन्धमें तद्दन निरपेक्ष वृत्ति होती है, और व्यवहाररहित ज्ञानसे कुछ लाभ नहीं हो सकता है । वह जिसप्रकार यहाँ दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया गया है उसीप्रकार अष्टकमें वैसे ज्ञानको महा अपायका कारण कहा गया हैं । हम व्यवहारमें भी इस बातको बारम्बार अनुभव करते रहते हैं। जिन्होने अव्यवस्थितपनसे बहुत अभ्यास करलिया हो उनको अपनी प्रवृत्तिके संबंधमें बहुत विवेक नहीं रहता है । केवल मस्तिष्क संस्कारितहुआ हो किन्तु अन्तःकरणपर
१ हरिभद्रसूरिके नवमें अष्टकका तीसरा चोक देखिये।