________________
२७६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ अष्टम उपाय है । शास्त्राभ्याससे मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है ? मेरा साध्य क्या है ? उस साध्यको प्राप्त करनेका उपाय क्या है? इसके जाननेका-समझनेका अवसर प्राप्त होता है और इसीलिये प्रमादको दूर करनेकी योग्यता शास्त्राभ्यासीको प्राप्त हो जाती है । यह अभ्यास भी मननपूर्वक और व्यवहारपर प्रभाव डालनेवाला होना चाहिये । वागाडंबर या चपलता पैदा करनेवाला शास्त्राभ्यास अत्यन्त लाभदायक नहीं है, कारण कि ऐसी स्थितिमें व्याधिके औषधरूप उसमें जो गुण होते हैं उनका नाश हो जाता है और वांछित परिणाम न देनेवाली औषधि व्यर्थ हो जाती है। इसीप्रकार शास्त्राभ्यास भी ऐसे संयोगोंमें व्यर्थ हो जाता है। रसायनका उक्त दृष्टान्त इससे खराब हो जाता है। कहनेका यह तात्पर्य है कि शास्त्राभ्यास बहुत मननपूर्वक करना चाहिये, उसीके अनुसार व्यवहार करना और प्रमाद आदि दुर्गुणोंको दूर करनेका साध्य लक्षमें रखना चाहिये । यह विशेषतया ध्यान में रक्खे कि परम साध्य तो शिव (मोक्ष) ही है और बुद्धि तथा शक्तिका आविर्भाव करनेवाले ऐसे अनुकूल प्रसंगोंके उपस्थित होनेपर भी उसका सदुपयोग न हो सके और प्रत्येक शुभ कार्यमें प्रमाद होते ही रहें इस स्थितिको दूर करनेकी आवश्यक्ताको समझना और दूर करने निमित्त परम पुरुषार्थ करना चाहिये । स्वपूजा निमित्त शास्त्राभ्यास करनेवालोंके प्रति. अधीतिनोऽर्चादिकृते जिनागमः,
प्रमादिनो दुर्गतिपापतेर्मुधा । ज्योतिर्विमूढस्य ही दीपपातिनो,
गुणाय कस्मै शलभस्य चक्षुषी ॥३॥ १ पनीपत्यत इति पापतिः यङन्तपत्धातोरिदं किप्रत्ययांतं आदगमहन जनः किकिनौ लिट्च ३-२-१७१ पाणिनिकृताष्टाध्यायीस्थसूत्रं तत्रस्थेन सासहि वावहि चाचली पापतीनामुपसंख्यानामिति वार्तिकेन ।