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अधिकार ] . कामयत्याग . ... [२३३ जाती है उसका वर्णन लेखनीद्वारा नहीं किया जा सकता है। एक पुरुषको रोटी-शाखसे संतोष हो जाता है और दूसरेको घेवर मादिकी प्राप्ति होनेपर भी दूधपाक-पूरी भादिकी अभिलाषा रहती है अथवा एकको वृक्षकी छाल तथा खादीके कपड़ेसे भी संतोष हो जाता है जब कि दूसरेको रेशमी कपड़े मिलते हों फिर भी कसबी कपड़ेकी अभिलाषा रहती है, तो फिर नोंमेंसे कौन सुखी है ? दुनियांके विचारशील पुरुषोमेंसे कोई भी यह कहने में न हिचकचायगा कि " संतोषी ही सच्चा सुखी है " नीतिकार कहते हैं कि “ मनके संतोषी हो जानेपर गरीब कौन
और धनवान कौम १" संतोषका सुख तो अतुल्य है । केनेरीज , केन्ज अथवा गिरनारकी ऊंची गुफाओमें निवास करनेवाले, संसारपर उदासीन वृति रखनेवाले, आत्मभावना भानेवाले, तथा आगंतुकके रक्खे हुए खाद्य पदार्थोपर निर्वाह करनेवाले ध्यानमम महायोगियों के सामने रुसके जार तथा इग्लेण्डके शाहन्शाह का मुख किस गिनती में है ?
वर्तमान समयमें जैन कौममें प्रथम कालकी अपेक्षासे यह दोष अधिक देखा जाता है, अतः इसकी और विशेष ध्यान खिचनेकी आवश्यकता है । दूसरे कषाय जब कि नवमे गुणस्थानकके अन्तमें नष्ट हो जाते हैं तब लोभ दशमें गुणस्थान नक रहता है । इससे प्रतित होता कि लोभकी स्थिति विशेष अधिक है। इस मनोविकारपर जय प्राप्त करनेका पूरा पूरा पुरुषार्थ करना तथा उसकी पहचान करनी चाहिये ।
__ मद मत्सर निग्रह उपदेश. करोषि यत्प्रेत्यहिताय किञ्चित् ,
कदाचिदल्पं सुकृतं कथञ्चित् । १ मनसि च परितुष्टे, कोऽर्थवान् को दरिद्रः । भर्तृहरि