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[ सप्तम
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अध्यात्मकल्पद्रुम नहीं गई थी किन्तु मुझे आशा है कि काका! तुम्हारे साथ तो यह अवश्यमेव पायगी" यह छोटीसी बात अत्यन्त रहस्यमय है । सम्पूर्ण छ खण्डोंको भोगनेवाले चक्रवर्ती भी जब खुले हाथों चले जाते हैं तो फिर तूं तो किस गिनतीमें है ? तुझको क्या मिला है १ मिला है उसमें भी तेरा क्या है ? और उनमेंसे तेरे साथ क्या क्या आनेवाला है ? इसका विचार कर और व्यर्थकी झंझटोंको छोड़ कर सीधे मार्गका पथिक बन ।
संसारवृक्षका मूल कषाय. विना कषायान्न भवार्तिराशि
भवेद्भवेदेव च तेषु सत्सु । मूलं हि संसारतरोः कषायास्त
त्तान् विहायैव सुखी भवात्मन् !॥ १८॥
" बिना कषायके संसारकी अनेकों व्याधिये नहीं हो सकती हैं और कषायोंके होनेपर पीड़ायें अवश्यमेव होती हैं । संसारवृक्षका मूल ही कषाय है । इसलिये हे चेतन ! इनका परित्याग कर सुखी हो।"
उपजाति. विवेचन-सम्पूर्ण अधिकारका सार यहाँ है । अर्थ भी स्पष्ट ही है । कषाय हैं वहां संसार है और जहां कषाय नहीं हैं वहां संसार भी नहीं है। कषाय अर्थात् संसारका लाभ, संसरण-गति करानेवाला-भटकानेवाला संसार और कषाय भी उसी तरह गति कराते हैं । किसको ? आत्माको । इनका त्याग अर्थात् गतिका बन्द हो जाना इस अन्वय व्यतिरेक धर्मको बराबर समझना, विचारना, मनन करना और हृदयमें स्थापन करना । कषाय न हो तो संसाररूप वृक्ष ही उत्पन्न न हो और कदाच कषाय होनेसे उत्पन्न हो भी गया हो तो उसकों भी उखेद देना चाहिये और फिर वह कभी न उत्पन्न होने पावे