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अध्यात्मकल्पद्रुम [ सप्तम् कौने थे। राजाने पुत्रको बुलाकर कहा कि मेरी अभिलाषा अब तुझे राज्यभार सौंप देनेकी है, परन्तु अपने कुलकी ऐसी प्रथा है कि पुत्रको राज्य लेनेसे पहिले पिताके साथ जुमा खेलना चाहिये और जूएमें एक बार जीत होनेपर एक कोना जीता जाता है और इसप्रकार एकसौ माठ बार जीतने पर एक स्तम्भ जीता जाता है । ऐसे एकसौ पाठ स्थम्भ जीत लेने पर पुत्रको राज्य प्राप्त हो सकता है, किन्तु खेलते खेलते यदि बिचमें एक भी बार हार जाता है तो पहलेकी सब जीत व्यर्थ हो जाती है और फिर पिछा खेल नये रूपसे प्रथम कौनेसे प्रारम्भ किया जाता है । यह बात पुत्रने स्वीकार की और यूत खेलना प्रारम्भ किया । इसप्रकार खेलते खेलते कितनी ही बार जीतता है और फिर हार जाता है, परन्तु खेल सम्पूर्ण तो कभी भी नहीं होने पाता है । इसलिये द्वितीय श्लोकमें कहते हैं कि" एकसौ आठ स्तम्भों से प्रत्येक स्तम्भमें एकसौ आठ कोने हैं और उन प्रत्येक कोनेको पुत्र पिताके साथ द्यूत खेल कर जीते तब उसको साम्राज्य मिल सकता है; किन्तु ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ तो है; फिर भी कदाच ऐसा होभी जावे परन्तु जो भाग्यहीन प्राणी मनुष्य भवको प्राप्त कर इसे व्यर्थ खो देता है वह तो फिर इसको कदापि प्राप्त नहीं कर सकता है।"
धान्यः-एक राजाने भरतक्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले सर्व प्रकारके अन्नोंको कौतुक निमित्त एकत्र किये और उनमें कुछ सर. सोंके दाने डाल दिये, तत्पश्चात् एक वृद्ध स्त्रीको बुला कर अन्नके देर से सरसोंके सब दाने अलग करनेकी आज्ञा दी । बिचारी वृद्ध स्त्री ऐसा किस प्रकार कर सकती थी ? अतः तीसरे श्लोकमें कहा गया है कि-" सम्पूर्ण भरतक्षेत्रके सर्व अन्नोंके समूहमें थोड़ेसे सरसों डाले हुए हों और उन्हीं दानोंको अलग