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२५६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ सप्तम् फिर पश्चाताप करके उन्हींको फिरसे प्राप्त करने निमित्त प्रयास करने लगे; किसी देवकी सहायतासे कदाच बणिकपुत्र उन्हीं सब रत्नोंको फिरसे प्राप्त करले, परन्तु जो भाग्यहीन प्राणी मनुष्य भवको प्राप्त कर उसे व्यर्थ खो देते हैं वे उसे फिरसे कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।"
स्वम-उज्जेन नगरीमें एक मूलदेव नामक चतुर राजपुत्र था । वह देवदत्ता नामक वेश्यापर आसक्त था । एक दिन एक शेठने उसका अपमान करके उसे वहाँ से निकाल दिया तो वह परदेशमें भ्रमण करने लगा । अनेक प्रकारके सृष्टिवैभवका उपयोग करनेवाला मूलदेव एक समय रात्रीको एक मठमें सोता था, उस समय उसने एक स्वप्न देखा कि चन्द्र उसके मुहमें प्रवेश कर रहा है। स्वप्न देखकर वह जग पड़ा। उसी समय एक गुसाईके चेलेने भी वैसे ही स्वप्नका कारण अपने गुरुसे पूछा । गुरुने उत्तर दिया कि 'तू आज घृत-खाण्ड सहित रोटी पायगा' शिष्यको तदनुसार भोजन मिला; किन्तु मूलदेव तो शास्त्रज्ञ था इसलिये मठमेंसे बाहर निकलकर फलफूलादि लेकर शास्त्रोक्त विधि अनुसार स्वप्नपाठकके समीप गया
और उसके सामने उन्हें रखकर उससे स्वप्नका हाल पूछा। स्वप्नपाठक बोला कि- 'तुमको राज्य प्राप्त होगा। मूलदेवने इस वचनपर विश्वास कर लिया । नगरसे अन्न लेकर मासोपवासी साधुको भोजन कराया और देवताओंके संतुष्ट होनेपर हजार हाथी रख सके ऐसा राज्य देवदत्ता गशिका सहित एक ही बचनमें मांगलिया। सात दिनके पश्चात् एक मरे हुए अपुत्र गजाके प्राममें प्रवेश करते पंच दिव्य प्रगट हुए और मूलदेवको राज्य मिला। जब गुसांईके शिष्यने यह सन्देश सुना तो उसको अत्यन्त खेद हुआ | एकही प्रकारके स्वप्न दोनोंको आनेपर