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२४८] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ सप्तम भलिभाँति जानता है कि पंचेन्द्रियपन अनेक कष्टसे प्राप्त होता है तथा धर्मका मिलना तो अत्यन्त कठिन है । इतना इतना सब अपनी खुदकी आँखोंसे देखनेपर भी यदि तेरी वृत्ति नहीं पलटती है, तुझको अल्पमात्र भी निर्वेद नहीं होता है तो समझना चाहिये कि तेरे पढ़ने-लिखनेमें धूल है, बागाडंबर है, देखावमात्र है, निष्फल है, बंधनरूप है।
धर्म कितनी कठिनतासे प्राप्त होता है यह प्रसिद्ध ही है। दस दृष्टान्तसे मनुष्यभवकी दुर्लभता जानी जा सकती है । इन दस दृष्टान्तोंके सम्बन्धमें टीकाकारने दस श्लोक पेश किये हैं वे कण्ठाय करके हृदयपर लिखलेने तथा सरल अर्थवाले हैं अत: यहां लिखदिये गये हैं। विप्रः प्रार्थितवान् प्रसन्नमनसः श्रीब्रह्मदत्तात् पुरा, क्षेत्रेऽस्मिन् भरतेऽखिले प्रतिगृहं मे भोजनं दापय । इत्थं लब्धवरोऽथ तेष्वपि कदाप्यनात्यही द्विः स चेद्, भ्रष्टो मर्त्य भवात्तथाप्यसुकृती भूयस्तमामोति न ॥१॥ स्तम्भानां हि सहस्रमष्टसहितं प्रत्येकमष्टोत्तरं, कोणानां शतमेषु तानपि जयन् द्यूतेऽथ तत्सङ्ख्यया। साम्राज्यं जनकात्सुतः स लभते स्याचदिदं दुर्घट, भ्रष्टो मयभवात्तथाप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ॥२॥ वृद्धा कापि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्य धान्यावलिं, पिण्डीकृत्य च तत्र सर्वपकणान् क्षिप्त्वाढकेनोन्मितान् । प्रत्येकं हि पृथक्करोति किल सा सर्वाणि चान्नानि चेद, भ्रष्टो मर्त्यभवात्तथाप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोतिन ॥३॥ सिद्धद्यूतकलावलाद्धनिजनं जित्वाथ हेम्नांभरैकर उनका उल्लेख हम कईबार करते हैं । इसलिये यहां देखी है ऐसा कहा गया है। इसका भावार्थ यह है कि ऐसा सुना है।