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अधिकार कापत्याम
[२३९ पाहता है, अत्यन्त अधम भाचरणवाला होनेपर भी ऊपर ऊपरसे महासद्गुणी होनेका झूठा आडंबर करता है, धर्मके नामपर लोगोंको धोखा देता है, अपनी धार्मिकवृत्तिके देखावका अनुचित लाभ लेता है, या तो धर्मके लिये एक फूटी कौड़ी भी व्यय नहीं करता है, या मानके लिये लखों रुपये व्यय करता है परन्तु सच्चा धर्म गुप्तरीतिसे नहीं करता है, एक समय खर्च करनेका निश्चय किये हुए पैसोंको दश वक्त भिन्न भिन्न प्रकारसे भिन्न भिन्न आकारमें मान लेता है और ऐसा करके धर्मरूपी धनसे हाथ धो बैठता है । एक ही फुकसे धर्मसुवर्णरन को उड़ा देता है और फिर अपनी वस्तुस्वरूपकी अज्ञानताके कारण एक गढेमसे दूसरेमें और दूसरे से तीसरेमें गिरता रहता है इसलिये इस विषय में इस श्लोकका विशेष विचार करना चाहिये । ___ कषायसे होनेवाली हानिकी परम्परा.
शत्रूभवन्ति सुहृदः कलुषीभवन्ति, धर्मा यशांसि निचितायशसीभवन्ति । स्निह्यन्ति नैव पितरोऽपि च बान्धवाश्च, लोकद्वयेऽपि विपदो भविनां कषायैः ॥ १६ ॥ • " प्राणीको कषायसे मित्र शत्रु हो जाता है, पश अपयशका घर हो जाता है, मा बाप भाई तथा सगे स्नेही स्नेह रहित हो जाते हैं, और इस लोक तथा परलोकमें अनेक "विपत्तियोंका सामना करना पडता है।" वसंततिलका. . विवेचन-कषायसे अनेकों हानियें होती है उनमेंसे कुछ निम्नस्थ हैं।
१ कषायसे मित्र भी शत्रु हो जाता है, यह बात बिल१ च स्थाने न इति वा पाठः ।