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• आकार] कवायत्याग
[२४॥ ५-कषायसे इस भव तथा परमवमें अनेक हानिये होती हैं जिसका थोड़ा बहुत स्वरूप ऊपर बताया गया है । मलीन अध्यवसाय और उससे मलीन व्यवहार करनेवाला पुण्य उपार्जन नहीं करता है, पाप उपार्जन करता है जिससे उसके कर्मनिर्जरा नहीं होती हैं और परभवमें भी अनेक दुःख सहन करता है । वहाँ क्रोधीको परतंत्रता, अभिमानीको नीच गोत्र आदिक, मायावीको स्त्रीपन और लोभीको दरिद्रता आदि अनेक दुःखपरम्परा होते हैं। उनको भुगतने के लिये वह फिर अनेकों पापोंका संग्रह कर लेता है जिससे इसप्रकार उत्तरोत्तर एक खड़ेमेंसे दूसरेमें और दूसरेसे तीसरेमें इसीप्रकार गिरता जाता है और कभी ऊँचा नहीं उठ सकता है। इस प्रकार कषायसे हानिकी परम्परा चलती है, ये बहुत ध्यानमें रख कर, समझ कर, विचार कर मनन करने योग्य है।
मदनिग्रह-खास उपदेश. रूपलाभकुलविक्रमविद्या
श्रीतपोवितरणप्रभुतायैः। किं मदं वहसि वेत्सि न मूढा
नन्तशः स्मभृशलाघवदुःखम् ॥१७॥ " रूप, लाभ, कुल, बल, विद्या, लक्ष्मी, तप, दान, ऐश्वर्य प्रादिका मद तूं क्या देख कर करता है ? हे मूर्ख ! अनन्तबार जो तुझे लघुताईका दुःख सहना पड़ा है क्या तूं उसको भूल गया है १"
स्वागता. विवेचन-जिस प्रकार ऊपरकी बाबतमें अनेक बार लघुताईको प्राप्त हुआ है, ऐसा कहा गया है उसीप्रकार श्री हेमचन्द्राचार्य भी कहते हैं कि
१ स्म स्थाने स्व इति वा पाठः ।
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