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२४ अध्यात्मकल्पद्रुम
( सतम् ____ मा जीहरस्तन्मदमत्सराये,
विना व तन्मा नरकातिथिk ॥ १३ ॥ "किसी समय अत्यन्त कठिनता उठाकर मी परभवके लिये तुझे यदि कुच्छ भम्पमात्र उत्तम कार्य (मुकत्व) करनेका अवसर प्राप्त हो जावे तो फिर उसका मद मत्सरद्वारा नाश न कर, और मुकृत्य बिना भरकका महमान
उपजाति. विवेचन-किसी समय तेरह काठियोंसे मार्ग दिये जाने पर गुरु महाराजका योग होता है । जिससे अनेक कोके क्षय होने पर दान-शीमादिक धर्मकार्य करनेकी अभिलाषा होती है। पहले तो मनुष्यपन ही मिलना दुर्लभ है और यदि कदाच वह मिल भी जावे वो भी श्रावक कुल, उत्तम जाति, उत्तम देह, 'देवगुरुकी जोगवाई और श्रद्धा नहीं मिलती है। इन सब योर्गो. के प्राप्त होनेपर भी निम्नलिखित काठिये धर्मकार्यमें प्रवृत नहीं होने देते हैं और कदाच मोहराजका बन्धन तोड़ कर गुरुके समीप भी चला जावे तो वहां अहंकार तथा अभिमान करके धर्मधनका नाश कर देता है। ऐसे प्रसंगोंमें जब अहंकार या मत्सर रखते हैं तब उनका अध:पतन हो जाता है और फिर चढ्नेका अवसर नहीं आता है । इसलिये ऐसे प्रसंगोंमें तूं बराबर सचेत हो कर पैर रखना । तूं चाहे कितना ही धनवान , गुणवान , पुत्रवान् क्यों न हो किन्तु तेरेसे भी दुनियां में अधिक बड़े, तेरेसे भी सवाये अनेकों पड़े हैं; और यदि तूं धन, पुत्र अथवा सम्पत्तिमें कम हो तो वे जिनके पास हो उनसे इर्षा न कर, कारण कि ये सब कर्मजन्य हैं । ये तो दोनों एक स्थानमें मिले हैं भोर चन्द दिनों में पिछे दोनों अलग अलग हो जायेंगे । यदि ऐसी वृत्ति न रक्खेगा तो इसका परिणाम अच्छा न होगा।