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२०१ प्रमादमें आसक्त हो तो कुछ अंशमें ठीक . भी है किन्तु वेडे शिरपर तो यम गर्ज रहा है, अनेकों व्याधियोंने चारों ओरसे तुझे घेर रक्खा है, तेरे कृत्य नरकमें लेजाने योग्य हैं, तेरा
आयुष्य अस्थिर है, लक्ष्मी तो किसीकी भी नहीं हुई, न तेरी ही होगी, शरीर क्षणविनाशी है और सगे-सम्बन्धी भी जब तक उनका स्वार्थ है तब तक तेरे हैं, फिर कोई किसीका नहीं है तो फिर तूं क्या देखकर विषयों में मासक्त रहता है ? ( पहले अधिकारके अठारवें श्लोकको देखिये )।
यद्यपि यह एक आक्षेपक श्लोक है, तिसपर भी सहृदय जनोंको इसमेंसे बहुत कुछ सिखनेको मिलता है। आश्चर्यपूर्वक या हुर्षपूर्वक विषयों में निमम होते समय शिरपर नाचते हुए वैरको न भूल जानेका उपदेश करनेवाले इस श्लोकके भावपर विचार करना योग्य है।
उपसंहार. विषयप्रमादके त्यागसे सुख. विमोहसे किं विषयप्रमादै
भ्रमात्सुखस्यायतिदुःखराशेः। तद्र्धमुक्तस्य हि यत्सुखं ते
गतोपमं चायतिमुक्तिदं तत् ॥ ९ ॥
"भविष्य में जो अनेको दुःखोंकी राशी है, उनमें सुखके भ्रमसे तूं विषयप्रमादजन्य बुद्धिसे क्यों लुभा जाता है ? उस सुखकी अभिलाषासे मुक्तप्राणीको जो सुख होता है
१ तद्गार्थ्यमुक्तस्येति वा पाठः । २ तद्गतोपमिति वा पाठः ।
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