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२१८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ सप्तम तद्विशेषमथवै तदुदक,
संविभाव्य भज धीर ! विशिष्टम् ॥६॥ __ " कषायसेवनसे तुझे जो सुख हो और कषायके क्षयसे तुझे जो सुख हो उनमें अधिक सुख किसमें है ? अथवा कषायका और उसके त्यागका क्या परिणाम है ? उसका विचार करके हे पंडित ! उन दोनों से जो अच्छा हो उसीका भादर कर।"
स्वागतावृत्त. विवेचन-सर्व प्राणियोंको सदैव सुख प्राप्त करनेकी अभिलाषा होती है इसलिये विचारशील प्राणी किसी भी कार्य को करते समय विचार करते हैं कि इस कार्यके करनेसे सुख कितना और दुःख कितना मिलेगा। अब यदि हम एक प्राणीपर क्रोध करें, कपट करें अथवा अभिमान करें तो उसमें क्या सुख है ? जब एकमें मानसिक उत्तेजना होती है दूसरेमें हृदयका उद्वेग होता है । अनेकों बार तो तात्कालिक मनोविकारोकी पुष्टि होती है, परन्तु जब क्रोध करनेके पश्चात् दो-चार घंटे शान्तिका समय आता है तब हमारी क्या दशा हो जाती है ? पश्चाताप अथवा उसके परिणामस्वरूप भविष्यमें होनेवाले पराभव के विचारसे अत्यन्त दुःख, अथवा क्रोध तथा मानका परिणाम कैसा होता है ? एक कहावत है कि यदि तुम क्रोध करोगे तो दूसरी ओरसे उसके बदलेमें भी वह ही मिलेगा । इसलिये इसके परिणाममें भी खराबी ही है । अब इसके विपरित दूसरी ओर किसी भी प्रकारका कषाय न करनेवालेकी स्थितिको देखिये तो जान पड़ेगा कि उसको न तो मानसिक उद्वेग है न हार्दिक ग्लानि ही है। इसके उपरान्त मानो उसने एक महान् कार्य किया हो-एक कर्त्तव्य पूरा किया हो ऐसे विचारसे उसके मनको अत्यन्त आनन्द मिलता है । क्रोध अथवा लोभके प्रसंग