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२२६ ] अध्यात्मकल्पनुम
[ सप्तम तथा दूसरोंकी कितनी हानि होगी ऐसे किसी भी प्रकारके परिणामका विना विचार किये मनका अव्यवस्थितपनसे गुस्सेमें प्रवर्तन होना 'क्रोध' कहलाता है।
३-दान करने योग्य सामग्री होनेपर भी दानयोग्यको दान न देना, निष्कारण दूसरोंके धनको ले लेनेकी अभिलाषा रखना, तृष्णा रखना और द्रव्य अथवा किसी भी पौद्गलिक वस्तुनिमित्त एक वृत्तिसे ध्यान करना ' लोभ' कहलाता है ।
४-अपनेमें न होनेवाले गुणों को मान लेना और वैसे ही होनेका दिखाव करना 'मान ' ( Vanity ) कहलाता है।
.. -कुल, विद्या, धन आदिका अहंकार करना 'मद' ( Pride ) कहलाता है।
६-निष्प्रयोजन ही दूसरोंको खेद पहुंचाकर अथवा गत आदि व्यसनोंका आश्रय लेकर मममें प्रसन्न होना 'हर्ष' कहलाता है।
ये ६ सञ्चे शत्रु हैं, कारण कि दुःख देनेवाला दुश्मन कहलाता है इसलिये अनन्त भवभ्रमणमें नारकी-निगोदके दुःख देनेवाले ये दुश्मन हैं, ये दिखाईमें सुन्दर जान पड़ते हैं परन्तु वास्तवमें ये सच्चे शत्रु हैं; अतः इनपर सचमुच क्रोध करना चाहिये और वह भी यहाँ तक कि क्रोध करके इनकी मित्रता ही तोड़ देनी उचित है।
कर्म संसारमें भटकानेवाले हैं और उपसर्ग-परिषह आदि उन काँका क्षय करानेवाले हैं । ये तेरे दुःखों को दूर करनेवाले वास्तविक मित्र हैं। इसलिये इनको ऐसा समझकर फिर भी यदि तूं अपने उपकारियोंपर क्रोध करना चाहता हो तो इनपर . १ षड् खि अन्य प्रकारसे भी गिने जाते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, हर्ष ( हर्ष के स्थान में कवचित् इर्षा भी लिखा जाता है ।