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२२८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[सप्तम माया होती है तो ये सब निष्फल होजाते हैं, कुछ भी लाम नहीं होता है । माया-कपट-लुचाई-बगवृत्ति इनका त्याग करना अति कठिन है, अपितु क्रोध तथा मान तो बहुधा दृष्टिगोचर हो जाता है, किन्तु माया तो गुप्तरुपसे कार्य करती है जिससे दूसरे पुरुषको उसकी खबर नहीं पड़ सकती है और कितनी ही बार तो माया करनेवाले पुरुषको भी इसका ठीक ठीक भान नहीं रहता है । जिसको संसार 'भद्रक जीव कहता है ऐसा बनने की बहुत आवश्यकता है। यह सत्य है कि ऐसे भद्रक प्राणियोंको कर्मबन्ध बहुत कम होते है । उपाध्यायजी महाराज कह गये हैं कि " केशोंका लोच कराना, शरीरपरसे मेलका त्याग न करना, भूमिपर शयन करना, तपस्या करना, व्रत रखना आदि
आचरणोंको व्यवहारमें लाना तो साधुके लिये सुगम है किन्तु मायाका त्याग करना अति कठिन है। " ऐसे अवलोकन करने. वाले विद्वान्के वचनों की ओर विशेषतया ध्यान आकर्षण करनेकी
आवश्यकता है। माया बहुत गहरी होती है इससे बहुधा वह समझमें नहीं आती है । सफित ( Manner ) ऐटीकेट (Etiguette) गृहस्थाई के नियम,अनावश्यक विवेक (Form ality) आदि मायाके अनेक भेद हैं। इस युगके जीवनमें मायाके प्रसंग बढ़ते जाते हैं । राज्यका अंग बहुधा क्रोध और मान होता है उसके स्थानमें माया और लोभ होता जाता है । इस युगमें बाहरी टापटीप अधिक बढ़ती जाती है और फिर भी बढ़ेगी ऐसा प्रतीत होता है। अपितु बनयापन-मायाके पर्यायरूप प्रयोग किया जाता है। अतः जैनधर्मके अनुयायियोंको बहुधा इस पापसे विशेषतया डरनेकी आवश्यकता है । उदयरत्नजी कहते हैं कि “ मुख मिट्ठो झुठों मनेजी, कूड कपटनो रे कोट; जीभे तो जी जी करेजी, चित्तमा ताके चोट रे,