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अधिकार ] कषायत्याग
[ २२७ क्रोध कर । कहने का तात्पर्य यह है कि उपकार करनेवालेपर किसीको क्रोध नहीं होता है इसलिये तेरा भी यह कर्तव्य है कि बढ् रिपुत्रों का परित्याग कर और उपमर्ग परिवह भादिको मित्रभाषसे ग्रहण कर उनके साथ मित्रता करनी। गजसुकुमालने उनके ससुर सोमिलपर प्रेम किया, क्योंकि यद्यपि वह बाह्य दृष्टिसे दुःख दे रहा था, परन्तु वासवमें तो वह एक बड़ा उपकारी था, इसीप्रकार अवंतिसुकुमाल के लिये भी शियालनी वास्तवमें बड़ी उपकारी सिद्ध हुई थी । इसके भी उपरांत स्कंदक, परशीक, मेतार्य मुनिमहाराजाओंके दृष्टान्तोंपर विचार किजिये ।
इसप्रकार द्वेषके घर क्रोध और मानके सम्बंध उपदेश किया गया है। इसका विशेष विवेचन इस अधिकारके अन्त भागमें किया गया है । अब राग के घर माया और लोभ का विवरण किया जाता है।
मायानिग्रह उपदेश. अधीत्यनुष्ठानतपःशमाद्यान्
धर्मान् विचित्रान् विदधत्समायान् । न लप्स्यसे तत्फलमात्मदेह
क्लेशाधिकं तांश्च भवान्तरेषु ॥ ११ ॥
" शास्त्राभ्यास, धर्मानुष्ठान, तपस्था, शप आदि आदि अनेक धर्मों अथवा धर्मकार्योंको मायाके साथ करता है, जिससे तेरे शरीरको क्लेश होनेके उपरान्त भवान्तरमें भी दुसरा कोई फल नहीं मिल सकता है और वे धर्म भी भवान्तरमें मिलना कठिन है।"
उपजाति. विवेचन-शास्त्राभ्यास, प्रतिक्रमण ( आवश्यक ) आदि धार्मिक अनुष्ठान बाह्याभ्यंतर बारह प्रकारके तप, उपशम, दम, यम, दान आदि अनेक धर्मकार्य करते समय यदि साथमें