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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ सप्तम
था । इसका क्या कारण था ? उनमें सच्ची विचारशक्ति थी, संसारस्वरूप का यथास्थित ज्ञान हो गया था, उसीप्रकार आत्म तथा पुद्गलका भेद बराबर समझते थे और तदनुसार चलनेकी उनकी उत्कट अभिलाषा थी । वह अभिलाषा ऐसे समय में फलदायक हो जाती है ऐसा विचारकर - देखकर उनको आनन्द प्राप्त हुआ था । क्रोधपर जय और मानत्यागके जो जो दृष्टान्त दिये गये हैं वे विशेष ध्यान देने योग्य हैं । इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि वे अशक्तिसे क्षमा धारण करते हों ऐसा कदापि नहीं था । कोई प्राणी यदि शरीरसे शक्तिहीन हो, वृद्ध हो, व्याधिग्रस्त हो या पागल के समान हो, तो वह कितने ही अपशब्द अपनी अशक्तिके कारण सुन सकता है, कितना ही अपमान सहन कर सकता है, कड़वा जानपड़े तो भी क्या करे ? क्या कर सकता है ? किन्तु इन महात्माओं के सम्बन्ध में यह बात घटीत नहीं हो सकती है । ये बहादुर थे, असाधारण क्षात्रबल वीर्यवान थे, संग्राम में अनेकों को अजय मालूम होनेवाले थे, फिर भी उसी आत्मबल से वे क्षमा धारण करते थे, मानका परित्याग करते थे और मनोविकारपर सख्त अंकुश रखते थे । इसीलिये ऐसे महात्मा पुरुषोंको योगी कहने में बिलकुल प्रतिशयोक्ति न होगी ।
ऐसे प्राणी दूसरोंके दोषोंको नहीं देखते हैं, वह अपने कमका ही दोष समझते हैं। जिसप्रकार चलते चलते दिवारसे टकराने से दिवार गिरजावे तो उसपर प्रहार करना अथवा द्वेष करना मूर्खता है, इसीप्रकार दूसरोंके आक्रोश ताड़ना से उसपर क्रोध करना मूर्खता है। यहां वर्णित क्षमा गुणवाले प्राणी यदि शीघ्र ही मोक्षप्राप्ति करले तो यह तहन स्वाभाविक ही है।