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अधिकार] कषायत्याग
[२१७ . कषायनिग्रह. को गुणस्तव कदा च कषायनिममे,
भजसि नित्यमिमान् यत् ।। किं न पश्यसि च दोषममीषां?
तापमत्र नरकं च परत्र ॥ ५ ॥
" कषायोंने तेरा कौनसा गुण किया? वह गुण कब किया कि तूं हमेशा उनकी सेवा करता है ? इस भवमें संताप और परभवमें नरक देनेरूप अनेक दोष हैं यह तूं क्यों नहीं देखता है "
स्वागता. विवेचन-कषायमें कोई गुण तो दृष्टिगोचर नहीं होता है, किसी प्राणीको किसी समय किसी भी प्रकार का गुण हुआ हो ऐसा भी नहीं सुना गया है । हरएक कषायसे उसके विषयमें कैसी कैसी पीड़ा होती है इन सबका दृष्टान्त दे दे कर बतादिया गया है। क्रोधसें शिघ्रतया मानसिक उत्तेजना, अहंकारसे मानभंग होते समय मस्तिष्ककी बदलती स्थिति, मायासे हररोज झूठा दिखाव होनेकी पीड़ा, और लोभसे सम्पूर्ण जीवनभर की चिन्ता, ऐसे इस भवके संताप और परभवमें उनके परिणामसे होनेवाली दुःखसंततिपर विचार करके कषाय न करना, ऐसा न हो सके तो बहुत कम करना, ऐसा प्रसंग ही न आने देना, आता हो तो रोकना और संसारको चाहते न जाना; परन्तु कुछ ऊंचे बढ़नेका विचार करना यह सुज्ञ पुरुषोंका कर्तव्य है।
कषायसेवन-असेवनके फलपर विचार. यत्कषायजनितं तव सौख्यं,
यत्कषायपरिहानिभवं च ।