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२२० ] . अध्यात्मकल्पद्रुम
[ सप्तम भी उसके द्वारा श्लाध्यता प्राप्त करनेकी अंतर्वृत्तिमें प्रवृति होती है । इसप्रकार मानमुक्ति प्रत्यन्त कठिन है । मनोविकार इतनी विचित्रतासे कार्य करता है कि यह प्राणी मोहके वशीभूत हो कर वस्तुस्वरूपको नहीं समझ सकता है, अन्धा हो जाता है, अचेत हो जाता है और अनेकों अकार्य करता है। परन्तु उनका हेतु-फलका कुछ भी विचार नहीं करता है। केवल तपस्याकी प्रवृति जब कि एकान्त मोक्ष नहीं प्राप्त करा सकती उस समय मानमुक्ति शिघ्र ही मोक्षकी प्राप्ति करा देती है । (मानमुक्तिका समय नवमें गुणस्थानमें बहुत उच्च स्थितिपर पहुँच जाने पर प्राप्त होता है)।
मेरेसे छोटे भाइयोंको वन्दना क्यों कर करुं? ऐसे अहंकारसे बाहुबलिने एक वर्ष तक घोर तप किया और उस समय विचार किया कि यदि तपसे केवलज्ञान प्राप्त करके मैं भाइयोंके समीप जाउंगा तो मुझे वन्दना न करनी पड़ेगी, परन्तु घोर तपस्या करने पर भी उसके साथ मान होनेसे उसको इष्ट फलकी प्राधि न हुई । उसकी अभिलाषा होती तो वह देववैभवको प्राप्त कर सकता था, किन्तु वह तो उसे चाहता ही न था। " वीरा मारा गज, थकी उतरो, गज चढ्या केवल न होय रे" ऐसे प्रतिबोघका अवसर उपस्थित हुआ जान कर बहेनोंके कहे हुए मधुर स्वरको सुन, कर सुज्ञ वीर सचेत हुआ, चमका और गजको पहचान गया। ज्योहि उसने गजका परित्याग किया कि उसी क्षण उसको इष्ट फनकी प्राप्ति हो गई, जिस फलकी एक वर्ष तक कठिन तपस्या करने पर भी प्राप्ति नहीं हुई थी। ऐसी वृत्ति धारण; करनेकी बहुत आवश्यकता है। गजपर चढ़नेकी वृति बहुधा दिख पड़ती है। जमानेकी प्रवृति, मानके अनुकून है और संसारमें परिभ्रमण करानेवाला इस महान् दुर्गुणको