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अधिकार ] कषायत्याग
[ २११ और वास्तवमें जिस जैनको वीरपरमात्माके प्रति मान होगा उसको संगमपर अवश्य क्रोध आयगा, परन्तु विचार करना चाहिये कि परमात्माको उससे क्या हुआ था ? सुननेवालेको यह बात सुनकर अत्यन्त आश्चर्य होगा कि अपनेपर ऐसे कठिन, प्राणांत, अनेक उपसोंके करनेवाले संगमको अनन्त संसारमें भ्रमण करना पड़ेगा ऐसे विचारसे प्रभुके आँखोंमें करुणाश्रु भागये थे । क्रोधके जयकी यहाँ पराकाष्ठा हो जाती है। अशक्त प्राणी चाहे जितने अपशब्द शान्तिपूर्वक क्यों न सुनलें, परन्तु चक्रवर्तीसे भी अधिक शक्तिशालीका उस प्रकारका जय सचमुच अनुकरणीय है।
. दस प्रकारके यतिधर्ममें सबसे प्रथम क्षमा अर्थात् क्रोधका जय करना लिखा है । क्रोधके आवेशमें प्राणी कर्त्तव्यविचारमें शून्य हो जाता है और तद्दन भानरहित दशामें होकर कितने ही हुक्म तथा अनर्थ कर डालता है । क्रोध ही पश्चातापका कारण है, इसलिये उसपर विजय प्राप्त करने निमित्त प्रसंगके आनेपर शान्ति रखना ही मुख्य कर्तव्य है । शान्ति रखना कठिन अवश्य है किन्तु अशक्य नहीं है। . उमास्वातिवाचक महाराज प्रशमरति प्रकरणमें लिखते हैं कि "क्रोधात्प्रीतिविनाशं " क्रोधसे स्नेहका नाश हो जाता है । यह हकीकत बराबर अनुभवमें भी आती है। वेही विद्वद्वर्य फिर लिखते हैं कि:
क्रोधः परितापकरः, सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः । - वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ।।
'क्रोध परिताप उत्पन्न करता है इसलिये वह सदेव मनको जलाता रहता है और वह ही सब मनुष्योंके हृदयमें उद्वेग पैदा करता हैं । (यह विज्ञानशास्त्रका सांप्रत स्थापित नियम