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२१२] अध्यात्मकल्पग्रुम
[ सप्तम है कि जब क्रोध करनेमें आता है तब सम्पूर्ण वातावरण ही उद्वेगपूर्ण हो जाता है। इसके उपरान्त क्रोध वैर सम्बन्ध करता है। इन सब के परिणामरूप क्रोध सुगतिका नाश करता है।" इस. प्रकार क्रोध अनेक प्रकारसे नुकशानदायक है और प्राणीका अधःपात करनेवाला है, इसलिये हमारा यह कर्तव्य है कि उसपर विजय प्राप्त करनेका प्रयास करे' शास्त्रकारने जो कोषको अग्निसे उपमा दी है यह बहुत उपयुक्त है । बिद्वान् कवि गा गये हैं कि
तृण दहन दहंतो, वस्तु ज्युं सर्व वाले, गुण करण भरी त्युं, क्रोध काया प्रजाले । प्रशम जलदधारा, वन्हिते क्रोध वारो, तप जप व्रत सेवा, प्रीतिवल्ली वधारो। धरणी परशुरामे, क्रोधे नक्षत्री कीधी, धरणी सुभुमराये, क्रोधे निब्रह्मी साधी । नरक गति सहाई, क्रोध ये दुःखदाई, वरज वरज भाई, प्रीति जे दे वधाई।
इन इन कारणोंसे क्रोध न करना ही इष्ट है; सुगति और सुख परम्पराके कारण हैं।
१ क्रोध न करना यह लगभग क्षमा रखनेके बराबर है । क्रोधके त्यागको मिलता हुआ सद्गुण क्षमा है। इसको करते समय बहुत आनंद प्राप्त होता है, अतः क्षमा धारण करना चाहिये । क्रोध करते समय मानसिक शक्ति ( Mental energy) का बहुत नाश होता है, जिसका शरीर पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है और कई बार आत्मघात जैसा भयंकर पाप भी इससे हो जाता है। क्रोधका त्याग और धमाका आचरण यह हमारा मुख्य कर्तव्य है । ' क्षमा ' शिर्षक ( Heading ) से श्री जैन धर्म प्रकाशमें बहुत विस्तारपूर्वक एक उल्लेख किया गया है ।