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कषायत्याग .. [२०९ स्त्वं नारकादिषु पराभवभूः कषायैः। मुग्धोदितैः कुवचनादिभिरप्यतः किं ? क्रोधासिहंसि मिजपुण्यधनं दुरापम् ॥ १॥
" हे जीव ! कषायसे पराभवका स्थान होकर तूने नारकीमें अनेक कष्ट सहन किये हैं और फिर भी सहन करेगा, तो फिर मूर्ख पुरुषोंकी दी हुई गाली आदि बूरे वचनोंपर क्रोध करके तूं अत्यन्त कठिनतासे मिलने योग्य पुण्यधनको क्यों नष्ट करता है ? "
वसन्ततिलका. • विवेचन-कषाय करनेसे इस जीवने अबतक अनेकों कष्ट सहन किये; नारकीमें परमाधामियोंद्वारा कष्ट पहुंचाया गया और परस्पर लड़ाई झगड़े किये; निगोदमें दुःख भोगे और वनस्पतिमें भटका; इसीप्रकार चौरासी लाख जीवायोनियों में कोई भी बाकी न बची इतना ही नहीं अपितु हरएक योनिमें अनन्तबार भटक आया । इस सबका कारण राग-द्वेष ही है। संसारमें भटकानेवाली, फँसानेवाली और कर्तव्यपरायनताको भूलानेवाली, तथा तद्दन पागल अथवा उन्मत्त करनेवाली ये दो शक्तिये ही हैं। इन्हींसे कषाय उत्पन्न होता है। क्रोध और मान ये दोनों द्वेषरूप हैं, जब कि माया और लोभ अमुक नयकी अपेक्षासे रागरुप हैं। ये सर्व कषाय अनन्तकाल तक दुःख देनेवाले हैं । इस अधिकारमें कषायका स्वरूप बताया जा रहा है उसमें प्रथम क्रोधको प्रधानता दी गई है । यदि कोई मूर्ख पुरुष गाली दे तो उसपर क्रोध न करें, उस समय विचार करना चाहिये कि यह बेचारा व्यर्थ संसारको बढ़ाता है; अथवा भर्तृहरिके कथनानुसार चलना । उनका कथन है कि:
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