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लेना चाहिये कि " समय ही अमूल्य धन है" इसका यह प्रयोजन नहीं है कि मृत्युसे भय करना, परन्तु यह उद्देश है कि मृत्युको दृष्टिमें रखते हुए, आलस्य तथा प्रमादका त्याग कर . अहर्निश कर्तव्यपरायण बनना उचित है।
सुख निमित्तसे वनकराते विषयोंमें दुःख. बिभेषि जन्तो ! यदि दुःख राशे
स्तदिन्द्रियार्थेषु रति कृथा मा । तदुद्भवं नश्यति शर्म यद्राक्, __नाशे च तस्य ध्रुवमेव दुःखम् ॥ ७ ॥
"हे प्राणी ! यदि तुझे दुःखोंसे भय है तो इन्द्रियों के विषयोंमें आसक्त क्यों होता है ? उन(विषयों)से उत्पन्न हुमा सुख तो शिघ्र ही नाश होनेवाला है तथा उसके नष्ट होजाने पर बहुत समय तक दुःखका होना मी निश्चय ही है।"
उपजाति. विवेचना-विषयसुखके विषयमें बहुत विचार करने कि आवश्यकता है । एक तो उसके परिणाममें दुःख होता है ( दुष्कृतजन्य ); दूसरा उसके अभावमें दुःख होता है और तीसरा वह अल्पस्थायी है-इन तीनों दशाओंका भिन्नभिन्न रूपसे ऊपर वर्णन आचुका है। चोथी बात यह है कि यदि हम उसका परित्याग कर देते हैं तो वह हमको बहुत प्रानन्द देता है किन्तु यदि वह स्वयं हमको छोड़ देता है तो हमको बहुत दुःख भोगना पड़ता है। आयुके परिपक्व होनेके पूर्व ही जो इन्द्रियभोगोंका परित्याग कर देते हैं वे ही शारीरिक तथा