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कितने ही अकार्य होजाते हैं, कितनी ही अश्लिल भाषाका प्रयोग किया जाता है, और मनपर तो किञ्चित्मात्र भी अंकुश नहीं रहता है। यह स्थिति धनव्यय करके भी क्यों प्राप्त की जाती है उसका समझना जरा कठिन है । शक्तिहीन मस्तिष्कको स्फुर्ति देने निमित्त अथवा दुःखको थोड़ेसे समयके लिये भूलजाने निमित्त मस्तिष्क बंधारण और सुख-दुःख के वास्तविक स्वरूपको नहीं जाननेवाले अज्ञ जीव इस मार्गकी ओर मूर्खतासे अग्रेसर होते हैं और फिर उनकी ऐसी बुरी टेव पड़जाती है कि उनका सम्पूर्ण जीवन निर्थक होजाता है । उत्तेजित पदार्थ बिना पैर लड़खड़ाने लगते हैं और शरीर तथा सम्पत्ति दोनोंका नाश .हो जाता है। इस मार्गकी ओर अग्रेसर हुए हुए भ्रमित मस्तिष्कवाले अपढ़ युवकोंकी निस्तेज स्थितिका बराबर अनुभव करके उस मार्गकी ओर दृष्टि भी न डालनेकी विशेषतया विज्ञप्ति है । यह दुर्व्यसन आर्य व्यवहारसे अपयुक्त है, इसकी जालमें पड़ने पश्चात् छुटकारा पाना अति कठिन है। यह कईबार अनेक प्रकारकी खराबी करनेवाला है इस बातको ध्यानमें रखते हुए उसीप्रकार जैन शास्त्रकार इसको सात बड़े दुर्व्यसनों से एक गिनते हैं । इसको लक्ष्यमें रखकर इस मार्गकी ओर अग्रेसर न होनेका दृढ संकल्प करलेना चाहिये । इस दुर्व्यसनसे अपनी प्रजा बहुधा दूर ही रहती थी ऐसा भी यदि कह दिया जाय तो भी इसमें कुछ अतिशयोक्ति न होगी, परन्तु पाश्चात्य संसर्गके योगसे और आत्मिक विचारक्षेत्र शक्तिहीन होता जाता है इसके भयसे इस विषयकी ओर ध्यान आकर्षण करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई है । शक्तिको उत्तेजित करनेवाले ये पदार्थ अवश्य है, इससे अल्प समयके लिये शक्ति बढ़ती है परन्तु परिणाममें बहुत घट जाती है । वास्तविक शक्तिदायक पदार्थ तो दूध, घी आदि