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आनंद चक्रवर्ती और इन्द्रको भी अलभ्य है । " यह निर्विवादित सत्य है कि आत्माके आनन्दसे जो सुख होता है वह उत्कृष्ट ही होता है । संसारसुख तो विकारजन्य, तथा माना हुआ है
और यह तो सात्विक सुख है । अपितु इस सुखके परिणाममें भी मुक्ति है । संसारसुखसे कर्मबंध होता है जबकि समतासे संवर तथा निर्जरा होती है और अंतमें मोक्षप्राप्ति होती है ।
इसप्रकार विषयप्रमादत्यागनामक अधिकार पूर्ण हुआ। विषयसेवन पर विशेषतया जोर देकर लगभग सम्पूर्ण अधिकारमें उसी भावको प्रगट किया है । विषय तात्कालिक श्रेष्ठ जान पड़ते हैं, परन्तु परिणाममें दुःखदायक हैं; तात्कालिक सुख भी एकमात्र मान्यतामें ही है; और विषय ही संसारकी अनेकों उपाधियों तथा खटपटके कारणभूत हैं यह वास्तविक स्थिति है । (पांचों इन्द्रियोंके विषय अत्यन्त दुःखदायक हैं यह बात निःसंदेह है ) यदि हम तिथंच जातिके दृष्टांतसे देखें तो जान पड़ेगा कि प्रत्येक इन्द्रियके सम्बन्धसे महान दुःख प्राप्त होता है । हाधीको पकड़नेके लिये गड्डेमें कृत्रिम हथिनी रक्खते हैं तब हाथी स्पर्शन्द्रियके वशीभूत होकर फँस जाता है। मिष्ट पदार्थ खानेके लोभसे मछली काँटेमें पिरोई जाती है; सुगन्धकी लहरमें भ्रमर सम्पूर्ण रात्रि कमलमें बैठा रहकर हाथीके मुख में जाकर प्राण खो बैठता है; दीपककी ज्योतिमें पतंग प्राण समर्पण कर देता है और हरिण सुन्दर मुर्लीके तथा वीणाके स्वरसे आकर्षित होकर जालमें फँस जाता है । उपाध्यायजी इन्द्रिय अष्टकमें कहते हैं कि:पतङ्गभृङ्गमीनेभ-सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रियदोषाचेद्दुष्टैस्तैः किं न पश्चभिः ? ॥१॥
इसप्रकार जब पतंग, भ्रमर, मच्छली, हाथी और