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भरा करता है । अल्पक जविको वस्तुस्वरूपका बिलकुल भान नहीं रहता है, इसलिये वह तो मदिरामें मस्त हो कर भकार्य करता है, अनाचरण करता है और अनेकों कष्ट झेलता है। किसी २ समय तो एक छोटीसी फुन्सीके होजाने पर भी हाय-हाय करने लगता है और किसी २ समय ज्वरके आने पर भी काम करना नहीं छोड़ता है। वास्तवमें यदि इसके सब आचरणोंको देखा जाये तो यह स्पष्टतया जान पड़ेगा कि मानो यह मद्यपानसे पागल हो रहा हो, परन्तु मदिरा क्या है ? कैसी है ? और उसको पिलानेवाला कौन है ? यह यह जीव नहीं जानता है और इसलिये इसको सरलतापूर्वक ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है । इस श्लोकमें इसका जो स्वरूप बतलाया गया है उसको समझकर शरीरसे तो अपना मतलब बना लेना ही प्रत्युत्तम है । नियमपूर्वक इसका पोषण करके इसके पाससे संयम पालनरूप काम करालेना चाहिये । पुष्टिकारक खुराककें खालेने पर यदि उसको हजम करने जितनी शक्ति नहीं होती है तो अपचा-अजीर्ण होजाता है; लेकिन थोड़ी वस्तु देकर अधिक कार्य लेना यह व्यवहारदक्षता कहलाती है। इसलिये शरीरके सम्बन्धमें भी इसी नियमका प्रयोग करना अत्यावश्यक है।
शरीरकी अशुचि, स्वहितग्रहण. यतः शुचीन्यप्यशुचि भवन्ति,
कृम्याकुलात्काकशुनादिभक्ष्यात् । द्राग् भाविनो भस्मतया ततोऽगा
ल्मांसादिपिण्डात् स्वहितं गृहाण ॥ ६ ॥