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१८.
"जिस शरीरके सम्बन्धसे पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र होजाती हैं, जो कृमिसे भरा हुवा है, जो कौओं तथा कुत्तोंके भक्षण करने योग्य है, जो थोड़ेसे समयमें राख होजानेवाला है और जो मांसका पिण्ड है उससे तूं तो तेरा खुदका हित कर।"
उपजाति.
विवेचन:-अति सुन्दर वस्तुएँ भी शरीरके सम्बन्धमें आनेसे अपवित्र होजाती हैं। मल्लिकुँवरीने छ राजाओंको जो उपदेश किया था वह इस शरीरकी रचना बनाकर ही किया था । यह शरीर जीवत हो अर्थात् जब तक इसमें
आत्मा-चेतन हो तव तक ही यह कृमि आदिसे भरा रहता है, लेकिन मृत्युको प्राप्त होजाने पर यह किश्चित्मात्र भी उपयोगमें नहीं पासकता है । पशुओंके चमड़े, मांस, पूंछ, श्रृंग, हड्डी
और चर्बो आदिके तो पैसे पैदा हो सकते हैं, किन्तु मनुष्यका शरीर तो बिलकुल निरर्थक है और यदि कदाच चार दिन तक पड़ा रहजाता है तो अनेकों रोगोंको उत्पन्न करता है। इसलिये मृत्युके पश्चात् इसको जलाके राख कर देते हैं, और अभी है सो भी केवलमात्र मांसका पिण्ड ही है। ऐसे शरीर पर मोह क्यों करना ? जिस दुर्गधिको देखकर दूरसे ही नाक पर रुमाल लगा लिया जाता है, वह ही दुर्गधि इस शरीरमें भरी हुई है । इस सम्बन्धमें छट्ठी भावना बाचने योग्य है। पुरुषके नौ और स्त्रीके बारह द्वार से गटरके समान सदैव अपवित्र पदार्थ नीकलते ही रहते हैं। अनेकों सुन्दर पदार्थ भी शरीरके संसर्गसे उसी स्वरूपको प्राप्त हो गये हैं और होते रहते हैं।