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किराया देकर कुछ दिनोंके लिये एक मकान किराये पर लिया हो और बादमें यह मेरा घर है ऐसा समझ कर विचार करता है कि यदि इसको काममें लाउँगा तो यह नष्ट होजायगा, ऐसा विचार कर उसको काममें नहीं लाता है, किन्तु जब मियाद पूरी होती है तो घरको छोड़ना ही पड़ता है; इसीप्रकार यह शरीर जीवको थोड़ेसे ( परिमित ) आयुष्ययुक्त प्राप्त होता है तब यह जीव विचार करता है कि परोपकार, तपस्या आदिसे तो यह शरीर दुर्बल हो जायगा, इसलिये मुझे ऐसे कार्य नहीं करना चाहिये । ऐसे निरर्थक विचारोंसे मूढबुद्धिवाला जीव शरीरका सदुपयोग नहीं करता है और जब आयुष्य पूर्ण होती है कि शीघ्र ही शरीरको छोड़ना पड़ता है, तब यह मनुष्यभव और शरीर दोनोंसे भ्रष्ट होता है।"
शरीरका कब पोषण करना, कैसे पोषण करना, क्यों पोषण करना आदि प्रश्नोंका जो यहाँ निर्णय किया गया है, बह मनन करने योग्य है।
शरीरसे होनेवाला आत्महित. मृत्पिण्डरूपेण विनश्वरेण,
जुगुप्सनीयेन गदालयेन । देहेन चेदात्महितं सुसाधं,
धर्मान्न किं तद्यतसेऽत्र मूढ ? ॥ ८॥
" मिट्टी पिण्डरूप, नाशवंत, दुर्गधी और रोगके घरवाले शरीरसे जब धर्म करके तेरा स्वहित भलीप्रकार सिद्ध