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"अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रंश, धर्मका अनादर और मन, बचन तथा कायाके योगोंका दुःप्रणिधान ये आठ प्रकारके प्रमाद जिनेश्वर भगवानने वर्जने योग्य
___ इन विषयप्रमादोंको छोड़ने की क्या आवश्यकता है ? यह इस अधिकारमें बताया गया है। विषयसेवनसे उत्पन्न होनेवाले सुख तथा दुःख
अत्यल्पकल्पितसुखाय किमिन्द्रियार्थस्वं मुह्यसि प्रतिपदं प्रचुरप्रमादः ॥ एते क्षिपन्ति गहने भवभीमकक्षे। जन्तून यत्र सुलभा शिवमार्गदृष्टिः ॥ १॥
" बहुत थोड़े और वह भी मानेहुए ( कल्पित ) सुखके लिये तूं प्रमादवान् होकर बारंबार इन्द्रियोंके विषयमें मोह क्यों करता है ? ये विषय प्राणीको संसाररूप भयंकर गहन बनमें फेंक देते हैं, जहां से मोक्ष मार्गका दर्शन भी इस जीवको सुलभ नहीं है।"
वसंततिलका. विवेचन-स्वादिष्ट मिढे पदार्थोंका सेवन किया, सिंभोग किया अथवा पियानाका सुन्दर मधुर स्वर श्रवण किया; किन्तु मुख कितना मिला ? कितने समय तकका ? इसके परिणामको देखिये । इन्द्रियजनित विषयों में रमण करना यह शुद्ध आस्मिक दशा नहीं है, क्योंकि उसीके परिणामले यह जीव संसारमें पड़ता है और उसमें इतना गहरा उतर जाता है कि