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धन-परित्यागके तीन कारण बताये गये हैं । परभवमें दुर्गति, इस भवमें मौजुद डर और धर्मविमुखता । इससे भी चोथा कारण विशेष मजबूत है, वह यह है कि पैदा करे हुए पैसे बहुधा दूसरोंके ही उपभोगमें आते हैं । पैसा पैदा करनेवाले तो अपना सम्पूर्ण जीवन उसीके उपार्जनमें लगाकर बड़ी कठिनतासे पैदा करते हैं, बहुत द्रव्य अपने वारीसके लिये छोड़ जानेवाले तो स्वयं कुछ भी सुख नही भोगते । लड़का होता है तो वह सुख भोगता हैं, नहीं तो दूसरे ही मालिक होते हैं । विशेषतया कृपणकी तो यही दशा होती है । नीतिशास्त्रमें कहते हैं कि:
कीटिकासश्चितं धान्यं, मक्षिकासश्चितं मधु । ' कृपणः सञ्चितं वित्तं, परैरेवोपभुज्यते ॥
कीड़ीसे एकत्र किया अनाज, मक्खीसे एकत्र किया मधु पौर कृपण पुरुषसे एकत्र किया धन यह दूसरोंके ही उपभोग में भाता है।
इन चार कारणोंका अन्त:करणसे विचार करें तो धन पर मोह क्योंकर रह सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं, किन्तु ऐसा विचार तो किजिये । तुम्हारे पास यदि पांच-दश लाख रुपये हों तो उनसे मोहित न होजाओ । शालिभद्रके घर पर सदैव देवताई-आभूषणोंकी नव्वाणु पेटियें उतरती थीं, फिर भी उसको यह बुरा जान पड़ा कि उसके ऊपर भी राजा है, अतः यह संसार असार है; तो फिर तुम्हारे दो-पांच लाख रुपयेकी तो गिनती ही क्या है ? तुम यदि सामान्य स्थितिके हो तो तुम्हारे लिये धनका परित्याग करना बहुत