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सात्त्विक खुराक देकर ममत्वरहित होकर पोषण करना यही हमारा कर्तव्य है।
- यह निःसंशय बात है कि शरीरका मोह प्राणीको संसारमें दुखी बनाता है । सनत्कुमार चक्रवर्तीको शरीर पर बहुत प्रेम था, परन्तु जब वह मोह पराकाष्ठाको पहुंचा तो शरीर विषमय हो गया । पुराणमें भी त्रिशंकुका एक दृष्टान्त
आया है जो शरीरपर मोह रखनेवालेको अत्यन्त सुन्दर ज्ञान देनेवाला है । " इस त्रिशंकु राजाको शरीरपर इतना अधिक प्रेम था कि वह उसी शरीरसे स्वर्गमें जानेकी अभिलाषा रखता था । उसने अपनी इस अभिलाषाको अपने कुलगुरु वसिष्ठके सामने जाहिर की तो वे इस बातको सुन कर हँस पड़े। तब उसने अपने पुत्रोंसे इसके लिये प्रयत्न करनेको कहाँ, परन्तु उन्होंने भी इस बातको हँसीमें उड़ा दिया । इस पर त्रिशंकुको क्रोध हो पाया और वह विश्वामित्रजीके समीप गया। विश्वामित्रजी के कुटुम्बपर दुष्कालके समयमें त्रिशंकुने बड़ा उपकार किया था, अतः विश्वामित्रने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और यज्ञ करने लगें। तपके प्रभावसे विश्वामित्रजीने त्रिशंकुको आकाशमें चढ़ाना शुरु किया, परन्तु जब वह स्वर्गके गढ़के सामने पहुंचा तो इन्द्रने उसे उल्टे शिर पछाड़ दिया । जब वह वापिस आधे रास्ते पहुंचा तो विश्वामित्रजीको यह बात मालूम हुई और उन्होंने कहा कि “ तिष्ठ त्रिशंको ! तिष्ठ" इन शब्दोंसे त्रिशंकु उल्टे शिर ही आकाशमार्गके मध्य में लटकता रह गया। उसको न तो स्वर्गसुख ही मिला न संसारमुख ही मिला। शरीरके ममत्वसे सबको खोया ।"