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जो शरिरूप जोहके सम्बन्धसे रोग, दुःख आदिको भोगती है, परन्तु जब उसके साथका सम्बन्ध छोड़ देगी तो सब दुःखोंका नाश हो जायगा। यह जीव जिसको अपना आश्रय समझता है वह शरीर ही आश्रितको दुःख देता है । यह बहुत दुःखकारक हैं; इसलिये अब एसा कार्य करना चाहिये कि जिससे किसी भी प्रकारके विचारसे अयोग्य ( Not deserving any consideration ) इस नालायक शरीरका कभी आश्रय ही न लेना पड़े। शरीरका ममत्व कम करनेमें यह उपमा बहुत उत्तम है। इसके उपरान्त निचेका श्लोक भी विचारने योग्य है।
जीव और सूरि के बिचमें हुई बातचीत. दुष्टः कर्मविपाकभूपतिवशः कायाह्वयः कर्मकृत्, बद्ध्वा कर्मगुणैर्हृषीकचषकैः पीतप्रमादासवम्। कृत्वा नारकचारकापदुचितं त्वां प्राप्य चाशुच्छलं, गन्तेति स्वहिताय संयमभरं तं वाहयाल्पं ददत् ।५।
“शरीर नामका नौकर कर्मविपाक राजाका दुष्ट सेवक है, वह तुझे कर्मरूपी रस्सीसे बांधकर इन्द्रियरूपी मद्यपान करनेके पात्रसे प्रमादरूपी मदिरा पिलावेगा । इस प्रकार तुझे नारकीके दुःख भोगने योग्य बनाकर फिर कोई बहाना लेकर वह सेवक चला जायगा; इसलिये तेरे स्वहित निमित्त इस शरीरको थोड़ा थोड़ा देकर तू संयमका भार
शार्दूलविक्रीडित.
वहन कराव।"