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विषयोंकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और खाली वरघोड़ा
आदिमें बड़ी रकम व्यय की जाती है । सुझ बधुओं ! धर्ममार्ग में धनव्यय करते समय भी विचार करनेकी बहुत आवश्यकता है । विवेकपूर्वक व्यय किया हुआ एक पैसा भी एक रुपयेके बराबर काम करता है और विवेक रहित व्यय किया हुआ रुपया भी पत्थर या रण में पड़ी हुई बारिस अथवा अरण्यरुदनके समान फल रहित होता है, यह बात ध्यानमें रखनेकी बहुत आवश्यकता है। धनसे होनेवाली अनेक प्रकारकी हानियें, और
उनका परित्याग करदेनेका उपदेश. आरम्भैर्भरितो निमज्जति यतः
प्राणी भवाम्भोनिधावीहन्ते कुनृपादयश्च पुरुषा
येन च्छला बाधितुम् । चिन्ताव्याकुलताकृतेश्च हरते
यो धर्मकर्मस्मृति, विज्ञा ! भूरि परिग्रहं त्यजत तं
भोग्यं परैः प्रायशः ॥६॥ "प्रारम्भ के पाप से भारी हुआ प्राणी जो धनके लिये संसारसमुद्र में डूबता है, जिस धनके परिग्रहसे राजा
१ 'पुरुष' ऐसा क्वचित् पाठ है, यह परिग्रहवंत पुरुषको उद्देश करता है ऐसा इसका भाव समझें।