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वास्तबिक दान ( Charety ) के विभागोंमें जो द्रव्यव्यय किया जाता है वह ही द्रव्यका सदुपयोग कहलाता है; बाकी पैसेके पूजारी बनकर उसकी समय समय पर फिरती चौकी देते रहने वा मौजशोक मनानेसे कुछ लाभ नहीं है । इतना ही नहीं अपितु एकांत हानि ही है । __इन दोनों श्लोकोंको साथ साथ पढ़नेसे मालूम होता है कि हमको धनकी अभिलाषा न रखकर, उसके पिछे पागल न होकर, वर्तमान स्थितिमें संतोष रखते हुए उपार्जित द्रव्यको जनसुधार तथा समाजसुधारमें व्यय करना चाहिये, धर्ममार्गमें धनका व्यय करना उत्तम है; परन्तु निःसंग होकर उसका सर्वथा त्याग करना यह उससे भी अधिक उत्तम है ।
धनके व्यय करनेमें दुर्भागी जितना चाहिये उतना ध्यान नहीं देता । जिन विभागों में सहायताकी आवश्यकता न हों उनमें तो बहुत द्रव्यव्यय किया जाता है और जिन विभागोंकी आर्थिक सहायत बिना खराब दशा हों, उनकी संभाल भी नही ली जाती है । यह बात सर्वदा ध्यानमें रखना चाहिये कि भूखसे जिसप्रकार मृत्यु होती है उसीप्रकार अधिक भोजन करनेसे भी विशूचिका होकर मृत्यु हो जाती है । शास्त्रकारका भी फरमान है कि जिस कालमें जिस क्षेत्रमें सिद्धि होती हो उसकी ओर प्रथम ध्यान रखना चाहिये । जैनियोंकी संख्याको बढ़ाना, उनको बराबर उचित ज्ञान देना, निरुद्यमीको उद्यमी बनाना और आनेवाले जमानेके लिये उपयोगी पुराना और नवीन साहित्य तैयार करके रखना यह वर्तमान समयका अति आवश्यक विषय है। ऐसे आवश्यक