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म हो। इस संसार में मरना निश्चय है। अतः इस विषय पर विचार करना भी उचित है इतना ही नहीं वरन् अति आवश्यक है । मरणप्रसंग में यहां इतना ही कहना उचित है कि मरने की इच्छा न रक्खे । खराब स्थिति में से बचने के लिये-छुटकारा पाने के लिये मृत्यु को न बुलावे, कारण कि कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं होसकता और ऐसे जीवों के लिये वहां परलोक में भी पलंग नहीं सजाये हुए है । इसीप्रकार मृत्यु से भी नहीं डरना चाहिये । ग्राम में बिमारी फैल रही हो, पुत्र छोटा हो, मी रोगप्रस्त हो, स्थिति साधारण हो आदि किसी भी कारण से मृत्यु से नहीं डरना चाहिये, अपितु मरने के लिये सदैव तैयार रहना चाहिये । इससे सम्पूर्ण जीवन में बहुत आराधना होगी और यदि मृत्यु का विचार सामने रहेगा तो कर्तव्यपालन के साथ साव सांसारिक कार्यों में भी एक प्रकार की मुटुंता पाजायगी, जिससे भवान्तर में विकास के नियमानुसार इस जीव के कर्मषय में वृद्धि होते होते कर्म के आत्यंतिक नाश का होना सम्भव होगा और अन्त में नाश भी होजायगा । इस स्थिति के प्राप्त करने के स्थान में यह जीव तो ममत्व के वशीभूत होकर ऐसे ऐसे कार्य करता है कि देखनेवाले को भी हँसी आजाती है ।
यह सब प्रकार के सम्बन्धों की अस्थिरता का वर्णन हुमा । मृत्यु विषय पर अधिक विचार करने से जान पड़ता है कि यदि यह मनुष्य के शिर पर न नाचती हो तो उसका प्रत्येक कार्य अत्यन्त कमेरतापूर्ण हो । मृत्यु के शिर पर नाचने का मान होने पर भी यह जीव कई बार मान आदि के अंहकार में मस्त
१ इन सबको और विस्तारपूर्वक देखने की अभिलाषा हो तो जीव सम्या का लेख देखें । नोट १ श्लोक २६