________________
करना ? करें भी तो उससे क्या लाभ ? इसप्रकार बारम्बार बदलनेवाले अचेत तथा सचेत पदार्थोपर प्रेम करना अपनी शान के विरुद्ध है और नहीं करने योग्य है। इसके लिये श्री उमास्वाति महाराज भी प्रशमरति प्रकरण में लिखते हैं कि:
तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किंचिदिष्टं वा ।। __ 'एक ही विषयों पर द्वेष करनेवाले जीव जब परिणामांतर में उन्हीं विषयों से आनंदित होते हैं तो उन्ही पदार्थों में तल्लीन हो जाते हैं, अतः वास्तव में इस जीव के लिये कोई भी पदार्थ इष्ट एवं अनिष्ट नहीं है' यह छोटासा पद्य भी अत्यन्त अर्थगांभीर्यपूर्ण होने से विचारने योग्य है।
इसीप्रकार किसी भी जीव या अजीव पर राग-द्वेष करना अयोग्य है। यदि इसपर विश्वास रखकर चलें तो अनेक प्रकार के खटपटों का अन्त आजाना सम्भव है। इसीकारण 'वीतराग' को देव माना जाता है । वस्तु पर के राग को कम करने निमित्त स्वाभाविकतया सब वस्तु पर समभाव रखने की
आवश्यकता होती है अतः समभाव प्राप्त करना सब का साध्यबिन्दु है | समता अधिकार के उपसंहार करते हुए स्वार्थसाधन के लिये जो यह श्रेष्ठ उपाय बताया गया है सो बहुत मनन करने योग्य है । इस संसारमें वास्तविक भटकानेवाले · राग-द्वेष ' ही हैं । वे दोनों मोहजन्य अथवा मोह ही हैं, कारण कि राग-द्वेष करते समय विवेक का नाश होजाता है और चित्त समता रहित होजाता है । मोह को अनेकबार मदिरा से उपमा दी गई है क्यों
१ प्रशमरति श्लोक ५२ वां.