________________
१५२
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
" धर्म के लिये पैसा एकत्र करने की अभिलाषा करनेसे तो उसकी इच्छा न करना ही अधिक उत्तम है । पैर के किचड़ लगजाने पर उसको धोकर साफ करने के स्थान में तो दूर से ही किचड़ का स्पर्श न करना, यह विशेष उत्तम है ।
बाकी उपार्जित द्रव्य का तो धर्ममार्ग में ही व्यय करना चाहिये | यह भाव आनेवाले श्लोक से और स्पष्ट होजायगा । द्रव्यस्तव युक्त धर्म से तो बहुत समय पश्चात् मुक्ति मिलती है जब कि नवविध परिग्रह से निःसंग हुए जीव उसी भव में जन्मजरा-मरण रहित अच्युतपद को प्राप्त करते हैं । निःसंगतास्वरूपवाला धर्म ही अति शुद्ध धर्म है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म के निमित्त धन उपार्जन करने का विचार न करें । पुनरावर्तन करके कहा जाता है कि इस श्लोक के भाव का बराबर विचार करें । ग्रन्थकार का यह बिलकुल विचार नहीं है कि वह द्रव्यस्तव को साधारण समझे, परन्तु उसका विचार यह बताने का है कि धर्म में प्रधानता निःसंगताकी है । यद्यपि द्रव्यस्तव से मोक्ष अधिक समय में प्राप्त होता है, परन्तु वह मोक्षमार्ग तो है ही ।
मोक्ष प्राप्त करने के अनेकों मार्ग होते हैं । उनमें से कोई लम्बे, कोई टेढ़े और कोई सीधे तथा सरल होते हैं । जिस प्रकार हम बम्बई से सुरत जाना हो तो प्राण्टरोड से बैठ कर सीधा भी जाया जाता है, अथवा भुसावल के मार्ग से वाप्तिरेल में होकर जाया जाता है अथवा अन्य बहुत से टेढ़े मार्ग से जाया