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१४३ कारणों से अपत्यस्नेहबद्ध नहीं होना चाहिये; अन्य सब शंकाओं का यहां निवारण होजाता है।
इसप्रकार तीसरा अपत्यममत्वमोचनद्वार पूर्ण किया गया है । पुत्रप्राप्ति से अत्यन्त प्रसन्न न होना, पुत्रमरण से हृदयहीन न होना और पुत्रपुत्र्यादि के बन्धन से संसार को न बढ़ाना यह ही मुख्य उपदेश है । इस सम्बन्ध में विशेष अगत्य की बात यह है कि यदि पुत्र न हो तो दुर्ध्यान न करना । पुत्रपुत्री हो तो उसको निकाले नहीं जाते, परन्तु न हो उसको संतोष रखना चाहिये । उसको यह विचार करना चाहिये कि वह संसार की बड़ी जंजाल से मुक्त है और आत्मसाधन, धर्मकार्य में द्रव्यव्यय और देशसेवा में जीवन अर्पण करते समय उसको किसी भी प्रकार की बाधा नहीं हैं । अत्यन्त शोक के साथ लिखना पड़ता हैं कि मनुष्य व्यवहार में इस से तद्दन विरुद्ध दिखाई पड़ता है । विशेषतया विद्याहीन दुर्भागी पुरुष पुत्रप्राप्ति निमित्त शास्त्र तथा संप्रदाय के विरुद्ध आचरण करते हैं । मानों कि पुत्र ही से मोक्ष मिलता हो एसा समझकर लौकिक मिथ्यात्वरूप मानताको मानते हैं। छोटेपन में विवाह करते हैं
और सब दिन दुर्ध्यान में ही बिताते हैं इतना ही नहीं लेकिन कितने ही मूर्खानन्द तो पुत्रप्राप्ति के लिये एक स्त्री के होते हुये भी दूसरी स्त्री से विवाह करते हैं। इसके स्थान में तो भाइ का तथा सगोत्र का या दूसरा चतुर पुत्र दत्तक कर लेना ही अमुक अंश में श्रेष्ठ है, कारण कि ऐसा करलेने से पुत्रप्राप्ति की इच्छा पूर्ण हो जाती है और अपनी स्त्री के साथ भी अन्याय नहीं होता वरना एक स्त्री के मोजूद होते हुए दूसरी स्त्री करने में तो अपढ़ स्त्रिये अपना हक स्थापित नहीं कर सकती और इस से उनके