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शक्या च नापन्मरणामयाद्या,
हन्तुं धनेष्वेषु क एव मोहः ॥ २॥
" जिन पैसों से शत्रु का भी उपकार हो जाता है, जिन पैसों से सर्प, चूहा आदि की गति होती है, जो पैसे मरण, रोग आदि किसी भी आपत्तियों को हटाने में समर्थ नहीं है उन पैसों पर मोह क्यों करना ?" इन्द्रवन.
विवेचन:-व्यवहार में पैसेवालेको आशमान तक चढ़ा देते हैं । ' सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ' ' वसु बिना नर पशु' आदि व्यवहारिक वाक्य कितने झूठा मार्ग दिखानेवाले है इस का यहाँ वर्णन किया जाता है । पहले पद में बहुत सरस भाव बताया गया है। शत्रु धन को लूट लेते हैं और उसी धन से बलवान हो कर जिसके धन को लूटा है तथा बलवान हुए हैं उसी पर आक्रमण करते हैं । परशुराम से महासंहार की हुई क्षत्रिय रहित पृथ्वी और सब सम्पत्ति सुभूमद्वारा भोगी गई । प्रतिवासुदेव से अत्यन्त परिश्रमद्वारा तीनों खण्डका राज्य एकत्र किया जाता है किन्तु वह वासुदेव के उपभोगमें आता है, और प्रतिवासुदेव का चक्र उस खूद का ही शिरच्छेद करता है। इसप्रकार अपने पैसे से अपना शत्रु भी बलवान हो सकता है।
बहुत से लोभी प्राणी मर कर अपने धन पर सर्प या चूहाँ होते हैं, ऐसा हम शास्त्र में बहुधा पढ़ते हैं। इस भव में ही नहीं लेकिन परभव में भी इतना ही दुःख देनेवाले नीच जाति में (तिर्यंच में ) गमन करानेवाले पैसे के लिये क्या कहना और उस पर किस प्रकार मोह करना, यह खूद के विचारने योग्य है ।