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१४९ राजा, चक्रवर्ती और समस्त संसार को शिरपर उठाने. बाले दूसरे शूरवीर भी चले गये, लेकिन उनके पैसोंने उनकों नहीं बचाया और न बड़े बड़े डाक्टरों तथा वैद्योंने ही उनको बचाया । बड़े बड़े धनिक जब बिमार होते हैं तो पैसे उनको उनकी असाध्य व्याधि से नहीं बचा सकते हैं । इसी प्रकार अन्य प्रकार की किसी भी भापत्ति में से बचाने के लियेभी धन असमर्थ है । जिस प्रकार शारीरिक उसी प्रकार मानसिक, ऐहिक उसी प्रकार आमुष्मिक अनेक दोषों के मूल पैसे पर मोह क्यों करना और ऐसे पैसो से क्या आशा रखना ? यह ध्यान में रखने योग्य है कि नन्दराजा के स्वर्ण पर्वत भी अन्त में कुछ काम नहीं आये। ___ धन से सुख के बदले दुःख अधिक है. ममत्वमात्रेण मनःप्रसाद
सुखं धनैरल्पकमल्पकालम् । आरंभपापैः सुचिरं तु दुःखं,
स्यादुर्गतौ दारुणमित्यवेहि ॥ ३॥ " यह पैसे मेरे है ऐसे विचार से मनप्रसादरूप थोड़ा , और थोड़े समय के लिये पैसों से सुख होता है; परन्तु भारम्भ के पाप से दुर्गति में लाखों समय तक भयंकर दु:ख होते हैं। इसप्रकार तूं समझ ।"
उपजाति. विवेचन-" यह घर मेरा है, यह गहना मेरा है, वटावखाते में जो इतनी रकम जमा है यह मेरी है "-ऐसे माने हुए मेरेपन के ममत्व से मन थोड़ासा प्रसन्न होता है,