________________
१०६
समताद्वार का उपसंहार । रागद्वेष के त्याग का उपदेश.
1
सचेतनाः पुद्गल पिंड जीवा, अर्थाः परे चाणुमया द्वयेऽपि । दधत्यनंतान् परिणामभावांस्तत्तेषु कस्त्वर्हति रागरोषौ ॥ ३४ ॥
66
पुद्गल पिंड और अधिष्ठित जीव- सचेत पदार्थ हैं और परमाणुमय अर्थ (पैसा) आदि अचेत पदार्थ हैं । इन दोनों प्रकार के पदार्थों में अनेक प्रकार के पर्याय भावपलटभाव आते रहते हैं, इससे उनपर राग-द्वेष करने के योग्य कौन है ? || ३४ ॥ उपजाति
"
"
',
विवेचन - त्री, पुत्र, सगे सम्बन्धियों आदि सब मनुज्यों के समान पोपट और कौआ, सर्प और नेवला, मगरमच्छ और सोनेके पंखवाला मच्छ, बिच्छु और तीड़, कीड़ी और मक्खी, शंख और जला आदि सबों के शरीर पुद्गल के बने हुए होते हैं । एक ही खान में से निकलने के बाद सोना, चांदी, लोहा आदि के समान घर का सब सुन्दर फरनीचर अचेत है जीव रहित पुद्गल है | इन सब सचेत और अचेत पदार्थों से बारम्बार पर्यायभाव आते रहते हैं । जीव बारंबार देवपन, मनुष्यपन, तिर्यचपन और नारकीपन आदि को प्राप्त होता रहता है जिसके इस स्वभाव का इस अधिकार के दो-चार स्थान में प्रसंगवश रूपान्तर से वर्णन होचुका है । किसी समय वह प्रभाद उत्पन्न करनेवाला रूप धारण करता
1