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" है विद्वन् ! जो स्त्रियों की वाणी स्नेह से तुझे मधुर जान पड़ती है उनपर प्रीति से तूं मोह करता है। परन्तु भवसमुद्र में पड़े हुए प्राणियों के लिये वे गर्दन में बाँधे हुए पत्थर के समान हैं। ऐसा तूं क्यों नहीं जानता ?"
स्वागतात.
विवेचन-अनादि अभ्यास से मोहराजा की आज्ञा से यह जीव बाहर के सुन्दर देखाव तथा भाषण से स्त्री पर मोहित होजाता है, फिर उसको न तो विवेक ही रहता है न लज्जा ही । स्त्री का मोह उसको कितना प्रतिबंध करनेवाला है इसका यदि वह किश्चित्मात्र भी विचार करे तो शिघ्र समझ में भासकता है । सत्तागत अनन्त ज्ञानवाले जीवकी यह ठपकापात्र स्थिति ध्यान में रखते हुए उसको जागृत करने निमित्त 'विद्वान् ' के उपनाम से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि-हे भाई ! दरिया में डूबते हुए प्राणी के लिये नकड़े या ऐसे कोई अन्य हलके पदार्थ की अवलंबन के लिये आवश्यक्ता होती है कि जिससे यह तैर सके; परन्तु उसके स्थान में यदि उसकी गर्दन में पत्थर बाँध दिया जावे तो वह दरिया में डूबता ही जाता है। भव ( संसार) समुद्र है, और उसमें स्त्री यह जीव के गले में बंधी हुई शिलारूप होकर डूबोती है। एक भव में एक समय के सम्बन्ध मात्रसे ही यह इतना कर्मबंध कराती है कि जिससे अनन्तभव तक भटकना पड़ता है। इसीप्रकार वैराग्य शतककार भी कहते हैं कि:मा जाणसि जीव तुमं पुत्तकलत्ताई मज्झ सुहहेऊ । निउणं बंधणमेयं, संसारे संसरंताणं ॥
'हे जीव ! पुत्र, स्त्री आदि मेरे सुख के कारण हैं ऐसा तूं विचार