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देते, और अतिशयार्थे द्विर्भाव ले कर चलाचल का अर्थ विनश्वर किया जावे तो वैसे पुत्रपुत्री से भी शान्ति नहीं मिलती । इसप्रकार पुत्रपुत्री से सर्वदा समाधि का नाश तो होता ही है।
पुत्र से भी पुत्री के लिये अधिक चिन्ता रहती है। उसको पढ़ाना, उसके लिये उत्तम वर को ढूंढना और उसके पुत्रपुत्री तक के लिये हरएक प्रसंग में अपना हाथ बढ़ाना और यदि वह दुर्भाग्यवती हो तो उसके वैधव्य दुःख को देखना ये सब अन्त:करण में शल्यरूप हैं।
इसप्रकार इस भव में अपत्य से समाधी का नाश होता है और उस दुर्ध्यान के परिणामस्वरूप भविष्य के भव में भी
आराम लेने का समय नहीं मिलता। यह श्लोक जिस के पुत्र न हो उसको विशेषतया ध्यान में रखना चाहिये । इस सम्बन्ध का इस अधिकार के निम्न उद्गारों में विशेष स्वरूप है।
आक्षेपद्वारा पुत्रममत्व त्यागका उपदेश. कुक्षौ युवत्याः कृमयो विचित्रा,
अप्यस्त्रशुक्रप्रभवा भवन्ति । न तेषु तस्या न हि तत्पतेश्च,
रागस्ततोऽयं किमपत्यकेषु ? ॥ ३ ॥
" पुरुष के वीर्य और स्त्री के रक्त-इन दोनों के संयोग से स्त्री की योनी में विचित्र प्रकार के कीड़े उत्पन्न होते हैं; उन पर स्त्री का तथा उसके पति का राग नहीं होता है तो फिर पुत्रों पर क्यों राग होता है ?" उपजाति.