________________
१३८
विवेचनः- " पिता और माता के बिच में स्नेहबन्धनरूप पुत्र नाम की जन्जीर डाली जाती है " ऐसा भवभूति कवि का कथन है । पुत्र को देख कर मनुष्य पागल होजाता है और उसके साथ बोलने में तथा उसको रमाने निमित्त ऐसी ऐसी चेष्टायें करता हैं कि मानों वह स्वयं पागल हो गया हो । बालक के संग वह भी बालक हो जाता है । प्रसंगोपात ग्रन्थकर्त्ता उसको समझाता है कि- मोहरानाने यह बन्धन बनाया
कि कुछ
दीक्षा लेने को
| कैदी पुरुष को किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं होता; उसका सुख कोई सुख नहीं है; इसीप्रकार इस पुत्रबन्धन से तेरी सब स्वतंत्रता का नाश होता है । तेरे को यदि देश सेवा, पितृ - सेवा और आत्म - सेवा करने की अभिलाषा होगी तो वह भी कम होगी अथवा यो कहिये भी नहीं हो सकेगी। आर्द्रकुमारने जब दूसरी बार फिर से जाने की अभिलाषा की तब उनके पुत्रने कच्चे धागे उनके पगे के चारों और लपेटे, व धागे केवल दर्शनमात्र से हाथी की जन्जीर को रखनेवाले और हजारों पुरुषों के लिये भी ऐसे आर्द्रकुमार से भी वे कच्चे सूत के धागे नहीं तोड़े गये और बारह बरस और घर में रहना पड़ा । पुत्रपुत्रीयों का बन्धन इसप्रकार का होता है ।
सूत के बारह
तो क्या ? परन्तु तोड़ने की शक्ति
अजय्य मालूम हों
महावैराग्यभाव जागृत होने पर जब किसी श्रासन्नसिद्धि जीव को संसार त्याग करने की अभिलाषा होती है तब स्त्री और पुत्र कितने बन्धनरूप होते हैं, ये सब सबके लिये अनुभवसिद्ध है । आत्मधर्म और ऊँचे प्रकार के कर्त्तव्य के पूरे करते समय यदि पुत्रधर्म और पतिधर्म आदि कोई भी बाधारूप
|