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में चढा देते हैं और संसार में मग्न प्राणी इन कवियों की प्रति भाशक्ति का वर्णन करते हैं, परन्तु सर्व प्रकार का अनुभव करके राजर्षि भर्तृहरि कहते हैं कि-" इसमें कुछ भी सार नहीं हैं।"
___ " देखी दुर्गंधी दूरथी, तूं मोह मचकोड़े माणे रे नवि जाणे रे, तेणे पुद्गले तुझ तनु भयुं रे ! " ऊपर के श्लोक के भावका इस में समावेश हो जाता है। कूड़े कचरे की गाड़ी को दूर से जाते हुए देख कर मुँह पर रुमाल लगा लिया जाता है, और विष्टा में पैर भर जाने पर धो डाला जाता है तो फिर वह बुद्धि
और आगे क्यों नहीं बढ़ती ? विषयांधपन इसी बात से स्पष्ट हो जाता है । विषयोंध होने पर विवेक नष्ट हो जाता है। मल्लिनाथजी का दृष्टान्त इस विषय में बहुत उपयुक्त है, और उसमें से बहुत कुछ सार लेने योग्य है। स्त्रीमोह से इस भव परभव में होनेवाले फलों
का दर्शन. अमेध्यमांसास्रवसात्मकानि,
नारीशरीराणि निषेत्रमाणाः । इहाप्यपत्यद्रविणादिचिंता
तापान् परत्रेयूति दुर्गतीश्च ॥ ४॥
" विष्टा, मांस, रुधिर और चर्बी आदि से भरे हुए स्त्रियों के शरीर का सेवन करनेवाले प्राणी इस भव में भी पुत्र और पैसा आदि चिन्ताओं का ताप भोगते हैं और परभव में दुर्गति को प्राप्त होते हैं।"
उपजाति. १ परत्र प्रतीति वा पाठः