________________
करने के बाद उसमें बताये हुए भावों का पृथक्करण करना, पृथकरण करके अरस्परस उसका सम्बन्ध लगाना और उसका रहस्य न हठ सके इसप्रकार स्थापन करना योग्य है । इसीप्रकार सुनने के सम्बन्ध में, कार्य करने के सम्बन्ध में और चलनेफिरने के सम्बन्ध में बराबर नियमपूर्वक पृथक्करण किया जाय और आंतरतत्स्व सम्बन्ध आदि की स्थापना की जाय तो अवश्य कृतिव्यवहार में बहुतसा हेरफेर होकर आत्मानुभव जागृत होगा; अत: भूमिकाशुद्धि के प्रबल उपाय निमित्त समता
और उसके चारों साधनों को धारण करना चाहिये और ऐसा करने के लिये विशेषरूप से आत्म-निरीक्षण विचारपूर्वक नियमसर हरसमय योग्य अवसर ढूंढ़कर अवश्य करना चाहिये । ।
. यह समता अधिकार सम्पूर्ण ग्रन्थ की कुन्जी है । सम्पूर्ण प्रन्थ में समताप्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के साधन बताये गये हैं । इस अधिकार के प्रत्येक श्लोक में से ऐसी ध्वनि स्फूरित होती है। मानो मुनिसुन्दरसूरिजीने इस ग्रन्थ को अपने सम्पूर्ण जीवन के अनुभव के पश्चात् उत्तरावस्था में लिखा हो । इसका प्रत्येक श्लोक अत्यन्त विचार करने योग्य है। इस सम्पूर्ण अधिकार में एकसी समता भरी होनी जान पड़ता है। सूरि महाराज के इस उच्च आशय को लक्ष्य में रखकर उसके योग्य ही विवेचन किया गया है । समवाप्राप्ति निमित्त सर्व प्रकार की शक्तियों का उपयोग करना इस ग्रन्थ के पढ़ने का अद्वितीय प्रणाम होना चाहिये । ' समता' सम्पूर्ण ग्रन्थ का रहस्य है जिसकी स्पष्टता पहले अधिकार से प्रगट है। । साम्यसर्वस्व' अधिकार भी ग्रन्थ की समाप्ति करते हुए प्रगट करता है कि ग्रन्थ की आदि से अंत तक एक ही विषय है। उसकी पुष्टि