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है तबतक ही अच्छा लगता है। अच्छा लगने से यह प्रयोजन है कि वस्तुतः वह है ही नहीं । एक शेठ के लड़के को उसके कुटुम्ब से बहुत प्रेम था। उसकी परीक्षा करने के लिये उसके मित्रोंने उसे अपना श्वास रोक कर मृत्यप्रायः बन जाने का बहाना करने को कहाँ । तदनुसार जब सेठ का पुत्र असह्य ( कृत्रिम ) पेट की वेदना की असाध्य व्याधि से खाट पर पड़ा हुआ रुदन करने लगा तब मित्रों में से एक ने धन्वंतरी वैद्य का रूप बनाकर उस सेठ के लड़के के शिर पर से पानी उतार कर कहा कि इस पानी में इस रोगी का सब रोग समा गया है, सो अब जो व्यक्ति इस पानी को पीयेगा वह उस रोग से प्रस्त हो जायगा और यह रोगी स्वस्थ हो जायगा । तो उसकी नवयौवना स्त्री, अतुल प्रेम बतानेवाली माता, करोड़ों की सम्पतिवाला पिता, अरबों का वारीस होनेवाला पुत्र, तथा अन्य आश्रितगण आदि सब खिसक गये और किसीने उस पानी को पीने का साहस नहीं किया । कोई पानी पीवे ऐसा विचार करना ही भूल है क्योंकि प्रेमबन्धन स्वार्थ की डोरी से ही बन्धा हुमा है । स्वार्थ की डोरी के टूट जाने पर किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता और “ निकालो निकालो " यही आवाज चारों ओर उठाई जाती है । सम्बन्ध के इसप्रकार के स्वरूप को जानते हुए भी प्राणी कर्तव्यविमुख होकर क्यों संसारबन्धन में फँस जाते हैं इसका खुलासा ज्ञानी महाराज इसप्रकार करते हैं। इसमें अनादि मिथ्यात्व-वस्तुस्वरूप की मज्ञानता सिवाय अन्य कोई भी कारण नहीं है, अतः स्वप्न अथवा इन्द्रजालवत् संसार सम्बन्ध में गर्त न होकर मात्मतत्त्व क्या है ? इस को समझना और समता प्राप्त करना ही मुख्य कर्तव्य है और इसीसे इसकी सिद्धि होती है ।। २८ ।।