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भावार्थ:-किसी पर क्रोध करना बड़ा कठिन है । इस के करते समय चहरे को लालपीला करना पड़ता है तथा मन को अपने अधिकार से बाहर करना पड़ता है। क्रोध करना
आस्मिक शुद्ध दशा नहीं है यह ऊपर से जाना जाता है, कारण कि इस में स्वभाविकता की कमी है । तब ऐसी कृत्रिम दशा धारण करने में क्या लाभ है ? ऐसी दशा क्यों धारण करना ? इसके विपरीत क्षमा धारण करने में किसी भी प्रकार की महनत नहीं करनी पड़ती, किसी भी प्रकार की तैयारी नहीं करनी पड़ती और कोई विचार भी नहीं करना पड़ता । वह आत्मिक शुद्ध दशा होनेसे उस पर विचार करनेवाले को वह सहज में ही प्राप्य है अथवा अपेक्षा को बराबर ध्यान में रखकर बोला जावे तो वह प्राप्त ही है। यह अपेक्षा वचन बताता है कि संसार मार्ग सरल नहीं है लेकिन मोधमार्ग सरल है । ऐसे टेढ़े बाँके कषायमार्ग को तूं क्यों ग्रहण करता है ? तूं एक और विचार करे तो तूझे मालूम होगा कि कषाय करना अनुचित है । जिनपर तूं कषाय करता है वे ही तेरे माता-पिता के रूप में अनेकों बार तेरे प्रीतिपात्र रह चुके हैं। एक भी बार जो प्रीतिपात्र रह चुका है उस पर कषाय करना यह सुज्ञों का कार्य कदापि नहीं है । कषाय पर-वस्तु है, पौद्गलिक है, पुद्गलजन्य है, संसार में भटकानेवाला है, दर्शनमात्र से ही दुःख देनेवाली वस्तुओं में इसकी गिनती है, इसके सेवन से थोड़ासा भी स्वार्थसाधन सिद्ध नहीं होता, उल्टा संसार विस्तृत होता है । अतः संसार से सम्बन्ध तोड़ने के अभिलाषी जीवों का कषाय के सम्बन्ध में न आना ही अधिक उत्तम है। कषाय के सम्बन्ध का विशेष विवेचन सातवें अधिकार में किया जायगा;